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श्री संवेगरंगशाला
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उत्पन्न किया है, और उनके योग्य उचित अपना कर्त्तव्य भी मैंने किया है। इस तरह इस जन्म की अपेक्षा वाला, सर्व भावों को पूर्ण करने वाला और घरवास में रहने के कारणों को-जवाब देने को पूर्ण करने वाला, यह दुष्ट इच्छा वाला, मेरे जीव को अभी भी क्या इसभव के विविध शब्दादि विषयों को सन्मान करने के बिना अन्य कोई आलम्बन स्थान शेष रहा है ? कि जिससे विषयासक्ति को छोड़कर एकान्त चिन्तामणी और कल्पवृक्ष से भी अत्यधिक एक धर्म में मैं स्थिर नहीं होता हूँ ? अरे रे ! आश्चर्य की बात है कि-कुछ विवेकरूपी तत्त्व को प्राप्त किया हुआ, भव्य प्रकृति से ही महान् और संसार वास से अति उद्धिग्न चित्त वाला और भोग की समग्र सामग्री के समूह, स्वाधीन फिर भी निश्चय से उसे मिथ्या मानने वाला और उसमें अप्रवृत्ति के लक्ष्य वाला चतुर पुरुष भी होता है कि वह जन्म से लेकर नित्य धर्म में ही अत्यन्त कर्तव्य बुद्धि वाला होने से परलोक सम्बन्धी धर्म कार्यों में ही सतत् प्रवृत्ति करता है । और हमारे जैसा आशारूपी पिशाचिनी से पराधीन बनो। विविध आशा रखने वाले, चतुर पुरुषों से विपरीत बुद्धि वाले और भावाभिनंदी तुच्छ मनुष्य की ऐसी कुबुद्धि भी होती है कि जिसने इस आराधना स्वरूप को कहीं पर, कभी भी, स्वप्न में भी नहीं सुना, देखा और अनुभव भी नहीं किया। अरे ! उसका जन्म निष्फल गया है। इसलिये अब मैं यहाँ अथवा वहाँ परअमुक स्थान पर अमुक उस आराधना का आचरण करूँ कि जिससे आज तक उसका अनादर करने से भविष्य में होने वाला दुःख मुझे दुःखदायी नहीं बने, अथवा यह और वह भी कार्य अनुभव किया, परन्तु अमुक परिमित काल तक ही किया, सम्पूर्ण नहीं किया, इससे इच्छा अधूरी रह गई । अतः अब उस कार्य की इच्छा करता हूँ, उतने काल तक करूँगा कि जिससे वह काल पूर्ण होते ही इच्छाओं की परम्परा का नाश होता है और इस तरह इच्छा रहित उपशमभाव को प्राप्त करते मैं बाद में जो कार्य करूँ वह शुभ-सुख रूप बने। निश्चय ही प्रकृति से ही हाथी के बच्चे के कान समान जीवन चंचल हो। वहाँ ऐसा कौन बुद्धिशाली इस संसारवास की अयोग्य कल्पना की इच्छा करे? तथा स्वप्न समान अनित्य इस संसार में यह मैं अभी करता हूँ, और इसे करके यह अमुक समय पर करूँगा, ऐसा भी कौन विचार करे ? इसलिए यदि मैं तत्त्वगवेषी बनूं तो सेवन किये बिना भी मुझे सर्व विषय में अनुभव ज्ञान तृप्ति हो
और यदि तत्त्वगवेषी नहीं बनूं तो सर्व कुछ भोगने पर भी अनुभव (आत्मतृप्ति) नहीं होती है । क्योंकि-इस संसार में जैसे-जैसे जीवों को किसी तरह भी मन इच्छित कार्य पूर्ण होता है वैसे-वैसे विशेष तृषातुर बना हुआ विचारा चित्त से