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________________ श्री संवेगरंगशाला १३१ की । वृद्धावस्था के कारण मूर्छा प्राप्त की है अथवा थक गई होगी' ऐसा समझकर लोगों ने अनुकम्पा से उसके शरीर पर पानी का सिंचन किया। तो भी उसे शरीर की चेष्टा से रहित देखकर लोगों ने श्री जैनेश्वर भगवन्त से पूछा-हे भगवन्त ! क्या वह जीती है या मर गई है ? प्रभु ने कहा-वह मर गई है और उस वृद्धा का जीव देव रूप बन कर शीघ्र ही अवधि ज्ञान से अपना पूर्वभव जानकर परम भक्ति से आकर जगद्गुरु के चरण कमलों को अभिवंदन करके पास बैठा था। उस देव को भगवन्त ने लोगों को बतलाया और जिस तरह उस वृद्धा का जीव यह देव हुआ वह बतलाया। इससे आश्चर्य चकित हुए लोगों ने कहा-सुकृत बिना भी ऐसी देव ऋद्धि उसने किस तरह प्राप्त की ? हे नाथ ! उसने सद्गति का कारण भूत ज्ञान दान, तप, शील अथवा सर्वज्ञ पूजन कितना किया? हमेशा दारिद्र का बड़ा कंद रूप, जन्म से दुखियारी और दूसरों की नौकरी से सदा संताप करती, उसने वह किस तरह किया ? इससे श्री तीन जगत् गुरु ने उसके पूजा की एकाग्रता का सारा वृत्तांत कहा। लोगों ने प्रभु को पुनः पूछा-हे भगवन्त ! श्री जिनेश्वर के गुणों से अज्ञात यह वृद्धा केवल पूजा के ध्यान से ही किस तरह देवलोक में उत्पन्न हुई ? श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा : जिसके गुण नहीं जानते ऐसे मणि आदि जैसे बुखार रोगादि के समूह को नाश करता है वैसे जगत् गुरु श्री जिनेश्वर की भी आराधक आत्मा उनको भले सामान्य रूप में जाने फिर भी श्वयं अनंत गुणों के कारण श्रेष्ठ होने से सत्कार करने वाला अन्य के अशुभ कर्मों का नाश करता है । इसी कारण ही इस शासन में गृहस्थों को द्रव्यस्तव की अनुज्ञा दी है, क्योंकि इसके अभाव में दर्शन शुद्धि भी नहीं होती है। इस तरह श्री जैन पूजा का ध्यान मुक्ति सुख का मूल है, पूर्वोपाजित पाप रूपी पर्वत को तोड़ने में वज्रसमान है और मनोवांछित अर्थों का निधान है । तो भी मूढ़ जीवों को जैसे अत्यन्त मनोहर भी चिन्तामणी प्राप्ति करने की इच्छा नहीं होती है वैसे शुभ पुण्य कर्म के अभाव में श्री जैन पूजा का परिणाम भी नहीं होता है, इसलिए हे देवानुप्रिय ! आश्चर्य मानो कि इतने भावमात्र से भी अद्यपि यह महात्मा शिवपद को भी प्राप्त कर सकता है, क्योंकि यहाँ से च्यवन कर श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर सुसाधु की सेवा से श्रेष्ठ दीक्षा को स्वीकार करेगा। वहाँ से देव होगा, पुनः वह पुण्यानुबंधी पुण्य से मनुष्य होगा इस तरह आठवें भाव में कनकपुर नगर में जग प्रसिद्ध कनक ध्वज नाम का राजा होगा और वह धन्यात्मा एक दिन शरदकाल होने पर महावैभव के साथ इन्द्र महोत्सव देखने जायेगा, वहाँ मेंढक
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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