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________________ १२८ श्री संवेगरंगशाला शेष साधुओं को भी अभिवन्दन करके कहते हैं कि-मैं जिस-जिस नगरादि में जाऊँगा वहाँ-वहाँ चैत्य, साधुओं और संघ को तुम्हारी ओर से भी वन्दन करूँगा । अथवा जो जाने वाला स्वयं बड़ा हो तो वहाँ रहने वाले साधु विहार करते मुनि को वन्दन करके कहे कि हमारी ओर से चैत्य, साधु और संघ को वन्दन करना। उसके बाद उस क्षेत्र में चैत्य भवन (मन्दिर) में जाकर भक्तिपूर्वक चैत्याचल के आगे उनकी वन्दनार्थ के लिए सम्यग उपयोग करे। इसी तरह श्रावक भी निश्चय रहने वाला समस्त को सम्यग् रूप क्षमा याचना कर, प्रतिमा, आचार्य और साधु आदि को वन्दन की सम्यग विधि करके, उन्होंने दिया हुआ निष्पाप संदेश को स्वीकर करके उपयोगपूर्वक उस गाँव, नगर आदि में आकर जहाँ जाए वहाँ बड़े यान वाहन आदि वैभव से और न्यायोपार्जित धन से जैन क्षेत्र में आवश्यक हो उसमें देकर, अनेक धर्म स्थानकों में नित्यमेव श्री जैन शासन की परम उन्नति को करते और दीन अनाथों को अनुकंपादान से परम आनन्द देता बुद्धिमाम श्रावक समस्त तीर्थों में परिभ्रमण करे, उसके बाद गृहस्थ और साधु भी उन चैत्यों में जाकर 'निश्चय संघ यह वन्दन करता है' इस प्रकार प्रथम उपयोगपूर्वक संघ सम्बन्धी सम्यग् वन्दन करके, फिर उसी अवस्था में भावपूर्वक अपना भी सम्यग् वन्दन करे, इस तरह किसी कारण से यदि द्रव्य क्षेत्र, काल आदि का अभाव हो तो संक्षेप से भी प्राणिधान आदि तो अवश्य ही करे। उसके बाद ज्ञानादि गुणों की खान समान साधुओं को और श्रावकजनों को देखकर कहे कि-हमको आप अमुक स्थान पर श्री जिनेश्वरों के दर्शन वन्दन करवाओ। फिर आदर के अतिशय से प्रगट हये रोमांच द्वारा कंचुक समान बनी काया वाले, भक्ति से भरे हुए उत्तम मन वाले, स्थानिक श्रावक आदि भी उनके साथ में पृथ्वीतल ऊपर मस्तक जमाकर-हे त्रैलोक के महाप्रभु ! हे प्रभृत-अनन्त गुण रत्नों के समुद्र ! हे जिनेन्द्र परमात्मा ! आप विजयी बनो इत्यादि श्री अरिहंत प्रभु के गुणों द्वारा अथवा 'नमोऽत्थुणं' इत्यादि शकस्तव के सूत्र से स्तुति करे, और आगन्तुक पधारे हुए यात्री उनके साथ आचार्य आदि का भेजा हुआ धर्मलाभ आदि को कहे, उसके बाद स्थानीय श्रावक अभिवन्दन, वन्दन, अनुवन्दन रूप उचित मर्यादा का पालन करे उसके बाद परस्पर कुशलता आदि विशेष पूछने में विकल्प जानना। अर्थात् प्रथम नमस्कार कौन करे और फिर कौन करे इस सम्बन्धी अनियम जानना । इस तरह परस्पर नमस्कार करने योग्य प्रेरणा रूप शुभयोग से उभय पक्ष को इष्ट की सिद्धि कराने वाला शुभपुण्य का अनुबन्ध होता है, ऐसा श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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