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संवेग की महा महीमा
संवेगेण भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? हे भगवन्त ! संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
संवेगण अणुत्तरं धम्मसद्ध जणयइ। अणुत्तराए धम्म सद्धाए संवेगं हव्वामागच्छइ। अणन्ताणु बन्धि कोह माण माया लोभे खवेइ । नवं च कम्म न बन्धइ। तापच्चइयं चणं मिच्छत्तं विसोहि काऊण दसंणाराहए भवइ। दसंण विसो हीएयणं वसुद्धाए अत्थे गइए तेणेव भवग्ग हणेणं सिज्झइ सोहीए यणं विसुद्धाए तत्त्यं पुणो भवग्गहणं नाइव कमइ॥
अर्थात-संवेग से जीव अनुत्तर-परम धर्म श्रद्धा को प्राप्त करता है। परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग प्राप्त करता है। उस समय अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है और नये कर्मों का बन्धन नहीं करता है। तीव कषाय के क्षीण होने से मिथ्यात्व विशुद्ध युक्त दर्शन आराधना नहीं है। अर्थात् मिथ्यात्व बंध नहीं होता है । दर्शन विशोधि के द्वारा विशुद्ध होकर कई जीवात्मा उसी जन्म में सिद्ध हो जाते हैं। एवं कई जीव दर्शन विसोध से विशद्ध होने पर तीसरे जन्म में मुक्त हो जाते हैं। इससे आगे जन्म-मरण नहीं करते हैं।
(उत्तराध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन में)