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श्री संवेगरंगशाला
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भौंरे तथा जंगली भैंसे के समान काले आकाश को पार कर इन्द्र देव नगर में पहुँच गया।
इस प्रकार इस लोक में पाप के संग से विरागी मन वाले धीर पुरुष श्रेष्ठ समाधि के लिए नमिराज के समान सर्वजन उद्यम करते हैं, क्योंकिधर्म गुणरूपी पौरजनों के निवास का श्रेष्ठ नगर समाधि है, अर्थात् समाधि में धर्मगुरु रह सकते हैं और समाधि आराधना रूपी लता का विशाल कन्द है । सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, क्षमा आदि महान गुण भी समाधि गभित हो तभी स्वसाध्य यथोक्त फल को सम्यक् रूप देता है, एकान्त में बैठो, प्रयत्न से पद्मासन लगाओ, श्वास को रोको, तथा शरीर को बाह्य चेष्टा को भी रोको, दोनों होंठों को मिलाकर रखो, मन्द आँख की दृष्टि को नाक के अन्तिम स्थान पर लगाओ परन्तु यदि समाधि नहीं लगे तो योगी उस ध्यान का फल को नहीं प्राप्त करता है। अति उत्तम योग वाले योगी जो चराचर जगत को भी हाथ में रहे निर्मल स्फटिक के समान देखते हैं, वह भी निश्चय समाधि का फल है
और जिसका चित्त समाधि वाला, स्ववश और दुर्ध्यान रहित होता है, वह साधु निरतिचार साधुता के भार को बिना श्रम से वहन कर रहे हैं । इस भवन तल में वे धन्य हैं कि समाधि के बल से रागद्वेष को चकनाचूर करने वाले जो शरीर का परम आधारभूत आहार की भो इच्छा नहीं करते हैं। वस्तु स्वरूप के सम्यग् ज्ञाता हर्ष विवाद आदि से मुक्त समाधि वाले जीव अनेक जन्मों के बांधे हुए कर्मों को भी शीघ्रमूल में से उखाड़कर फेंक देते हैं। इसलिए चित्त को विजय करने रूप लक्षण वाली भाव समाधि के लिए प्रयत्न करना योग्य है। यह भाव समाधि ही यहाँ उपयोगी है, अब इस सम्बन्ध में अधिक क्या कहें। इस प्रकार शास्त्र में कही युक्तियों वाली और परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली आराधना रूप संवेगरंगशाला के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला परिकर्म नामक प्रथम द्वार में यह पाँचवां समाधि नामक अन्तर द्वार कहा है।
___ इस तरह चित्त के विजय से प्रगट हुआ यह समाधि गुण भी यदि आराधक बार-बार मन को नहीं समझायेगा तो मन स्थिर नहीं होगा, क्योंकि यदि वाहन-नाव के समान मनरूपी समुद्र में पड़ा हुआ परिभ्रमण करता है, अज्ञानरूपी वायु से प्रेरित हुआ दुर्ध्यान रूपी तरंगों से टकरता है और मोहरूपी आवर्त (चक्कर) में पड़ता है, ऐसे मन को बार-बार अनुशासन रूपी कर्णधार नाविक सम्यक काबू में नहीं रखेगा तो वह समाधि रूपी श्रेष्ठ मार्ग को कैसे प्राप्त कर सकेगा ? अर्थात् मोक्ष मार्ग नहीं प्राप्त कर सकेगा। इसलिए दोष