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________________ ક श्री संवेगरंगशाला विधिपूर्वक शयन करे, और देव गुरु का स्मरण करे | उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करे अथवा मैथुन का अमुक समय आदि नियम पूर्वक प्रमाण करे, फिर कंदर्प आदि का त्याग करके एकान्त स्थान में शयन करे । ऐसा होने पर भी गाढ़ मोहोदय के वश यदि किसी तरह अधम भोग कार्य में प्रवृत्ति करे तो भी मोह का विकार वेग शान्त होने के बाद भावपूर्वक इस प्रकार चिन्तन-मनन करे - ओह दुःख और सर्व अनर्थों का मूल है इसके वश पड़ा हुआ प्राणी हित को अहित मानता है । और जिसके वंश पड़ा हुआ मनुष्य स्त्रियों के असार भी मुख आदि को चन्द्र आदि की उपमा देता है उस मोह को धिक्कार हो, स्त्री शरीर का वास्तविक स्वरूप का इस प्रकार चिन्तन करे कि जिससे मोह शत्रु को जीतने से संवेग का आनन्द उछले- वह इस प्रकार स्त्रियों का जो मुख चन्द्र की कान्ति समान मनोहर कहलाता है, परन्तु वह गन्दा मैल का झरना ( दो चक्षु दो कान, दो नाक और एक मुख रूप ) सात सोत से युक्त है । बड़े और गोल स्तन मांस से भरा हुआ पिंड है, पेट अशुचि की पेटी है और शेष शरीर भी मांस हड्डी और नसों की रचना मात्र है । तथा शरीर स्वभाव से ही दुर्गंधमय मैल से भरा हुआ, मलिन और नाश होने वाला है, प्रकृति से ही अधोगति का द्वार घृणाजनक और तिरस्कार करने योग्य है, और जो गुह्य विभाग है वह भी अति लज्जा उत्पन्न कराने वाला अनिष्ट रूप होने से उसे ढांकने की जरूरत पड़ती है, फिर भी उसमें जो करता है तो खेद की बात है कि वह मनुष्य अन्य कौन से निमित्त द्वारा वैराग्य प्राप्त करेगा ? ऐसे दोष वाली स्त्रियों के भोग में जो वैरागी है वे ही निश्चय से जन्म जरा और मरण का तिलान्जली देते हैं । इस तरह जिस निमित्त से जीवन में गुणघात होता हो उसका उस प्रतिपक्ष को, प्रथम और अन्तिम रात्री के समय में सम्यग् रूप चिन्तन-मनन करे विशेष क्या कहे ? श्री तीर्थंकर की सेवा, पंचविध आचार रूपी धन वाले - पालक गुरु की भक्ति, सुविहित साधुजन की सेवा, समान या अधिक गुणीजनों के साथ रहना, नये-नये गुणों को प्राप्त करना, श्रेष्ठ और अति श्रेष्ठ नया-नया श्रुत का अभ्यास करना, अपूर्व अर्थ का ज्ञान और नयी-नयी हित शिक्षा प्राप्त करना, सम्यक्त्व गुण की विशुद्धि करना, यथाग्रहित व्रतों में अतिचार नहीं लगाना, स्वीकार किये धर्म रूपी गुणों का विरोध नहीं हो इस तरह घर कार्य करना । धर्म में ही धन को बुद्धि करना, साधर्मिकों में ही गाढ़ राग रखना, और शास्त्रकथित विधि के पालन करते अतिथि को दान देने के बाद शेष रहा भोजन करना । इस लोक के लौकिक
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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