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श्री संवेगरंगशाला
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का जानना । इसमें प्रथम में गृहस्थ की सामान्य आचार रूप आसेवन शिक्षा को कहता हूँ ।
साधु और गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म - लोक निन्दा करे ऐसे व्यापार का त्यागी, मन को कलुषित रहित, सद्धर्म क्रिया के परिपालन रूप धर्म रक्षण में तल्लीन, शंख की कान्ति समान निष्कलंक, महासमुद्र सदृश गम्भीर अर्थात् हर्ष शोक से रहित, चन्द्र की शीतल चाँदनी समान, कषाय रहित जीवन, हिरनी के नेत्र समान निर्विकारमय, निर्मल आँखों वाला और ईख की मधुरता सदृश जगत में प्रियता, व्यवहार शुद्धि इत्यादि जैनोक्ति मार्गानुसारी जोकि उत्तम श्रावक कुल में जन्म के प्रभाव से श्रावक को सहज सिद्ध होती है, फिर भी इस तरह इन गुणों में विशेषता जानना । ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध की सेवा, शास्त्र का अभ्यास, परोपकारी उत्तम चारित्र वाला मनुष्यों की प्रशंसा, दक्षिण्य परायणता, उत्तम गुणों का अनुरागी, उत्सुकता का त्याग, अक्षुद्रत्व, परलोक भीरूता, सर्वत्र क्रोध का त्याग, गुरु, देव और अतिथि की सत्कार पूजादि, पक्षपात बिना, न्याय का पालन, झूठे आग्रह का त्याग, अन्य के साथ स्नेहपूर्वक वार्तालाप, संकट में सुन्दर धैर्यता, सम्पत्ति में नम्रता, अपने गुणों की प्रशंसा सुनकर लज्जा, आत्म-प्रशंसा का त्याग, न्याय और पराक्रम से सुशोभित लज्जालुता, सुन्दर दीर्घदर्शिता, उत्तम पुरुषों के मार्ग का आचरण करने वाला, स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा परिपूर्ण पालन करने में समर्थ, प्राणान्त में भी उचित मर्यादा का पालन करने वाला, आसानी से प्रसन्न कर सके ऐसी सरलता, जन- प्रियत्व, परपीड़ा का त्याग, स्थिरता, सन्तोष ही धन वाला, गुणों का लगातार अभ्यास, परहित में एकाग्रता, विनीत स्वभाव, हितोपदेश का आश्रय स्वीकार करने वाला, माता-पिता आदि गुरु वर्ग का और राजा आदि के अवर्णवाद वगैरह नहीं बोलने वाला इस लोकपरलोक का अपाय आदि का सम्यग् रूप चिन्तन करने वाला इत्यादि इस लोक-परलोक में हितकारी गुण समूह को श्रावकों को हमेशा प्रयत्नपूर्वक आत्मा
स्थिर करना चाहिए । इस तरह यह सामान्य आचारों की आराधना गृहस्थ के लिए है, यह सामान्य गुण विशेष आचार में मुख्य हेतु होने से निश्चय ही उन गुणों की सिद्धि में प्रयत्न करते विशेष आचारों की भी सिद्धि हो सकती है । यहाँ प्रश्न होता है कि सामान्य गुणों में भी आसक्त मनुष्य विशेष गुणों में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? सरसों को भी उठाने में असमर्थ हो वह मेरूपर्वत को नहीं उठा सकता है । इसका उत्तर देते हैं कि -लोक स्थिति में प्रधान उत्तम साधु भी इसी तरह अपनी भूमिका ( शक्ति अनुसार ) के योग्य सर्वप्रथम