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बौधिक याने चोर तथा खोभाई में कहे गये आदिशब्द से राजा आदि से क्षोभ (संभ्रम भय, उपद्रव) तथा दीवाल विगेरे के गिरने के भय से अन्यत्र जाना पड़े फिरभी अपूर्ण काउस्सग्ग का भंग नही होता है। उसे बोधिक्षोभ आगार समजना। अर्थात् सम्यक्त्व को नुकसान पहुंचे ऐसे प्रसंग पर अन्यत्र जाना पड़े फिरभी काउस्सग्ग अखंड रहे उसे बोधिक्षोभ आगार कहा गया है।
४. स्वयं को या अन्य को (मुनिओं को) दीह-दीर्घ अर्थात् सादिक द्वारा डक्लो = दंश दिया गया हो, या दंश का भय हो तो अपूर्ण काउस्सग्ग को पारने पर फिर भी काउस्सग्ग का भंग नहीं होता है । उसे दीर्घडक आगार कहागया है।
२० कायोत्सर्ग के १७ दोष घोड़ग - लय- खंभाई, मालुद्धी निअल सबरि-खलिण-वहू | लंबुत्तर थण-संजइ, भमुहंगुलि- वायस कविद्वो ॥१६॥ सिर-कंप - मूअवारु - णि, पेहति चइज दोष उस्सग्गे ।
लंबुतर-थण-संजई, न दोष समणीण, स-बहु सड्ढीणं ॥१७॥ अन्वय :- घोड़ग - लय- खंभाई, मालुद्धी निअल सबरि - खलिण-वहू ।
लंबुत्तर थण-संजइ, भमुहंगुलि- वायस कविहो ॥१६॥ 'सिर-कंप - मूअ वारुणि, पेह-त्ति उस्सग्गे चइज दोस।
समणीण लंबुत्तर थण संजइ, सड्ढीणं स-बहु न दोस ||५७॥ शब्दार्थ :- घोड़ग = अश्व, लय = लता, बेल, खंभाई = स्थंभादिक, माल- मंजिल, उद्धी = उद्ध (गाडाकी), निअल = बेड़ी, सबरि = भीलडी, शबरी, खलिण = लगाम, वहु-बहु, वधू, लंबुतर = लंबा उत्तरीय, थण = स्तन, संजइ = संयती, साध्वी, भमूहं = भ्रमर, पापण, अंगुलि-अंगुलि, वायस-कौआ, कविहो = कोठे का फल, ||५६ ।।
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