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वंदना और अनुशास्ति स्तुति इन दोनों का युगल 'स्तुति युगल' कहलाता है । इस प्रकार चार स्तुति के एक युगल वाला चैत्यवंदन उसे मध्यम चैत्यवंदन कहा गया है । इस प्रकार मध्यम चैत्यवंदना समझना ।
(३) उत्कृष्ट चैत्यवंदना : जिसमें मुख्यतासे नमुत्थुणं आदि पांच दंडक अथवा पांच नमुत्थुणं और स्तुति के चतुष्क द्वारा अर्थात् दो स्तुति युगल = ८ स्तुतियों द्वारा स्तवन जावंति चे. जावंतकेवि. और जयवीयराय इन तीन प्रणिधान सूत्रों द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है। पौषध विगेरे में देववंदन करते समय ये चैत्यवंदना होती है ।
इस प्रकार जघन्य, मध्यम उत्कृष्ट चैत्यवंदना (प्रति चैत्यवंदना) जघन्यादि तीन प्रकार कुल ३X३ = ९प्रकार की होती है। इसके अलावा भी अन्य बहुत से प्रकार है, उन्हें अन्य ग्रंथों से समझना | वर्तमान काल में तो पूर्वाचार्यों की परंपरा से जहाँ जैसी आचरणा हो वहाँ वैसी चैत्यवंदन विधि आदरने योग्य है ।
अन्य आचार्यों के मत से तीन चैत्यवंदन अन्ने बिति 'इगेणं सक्कथएणं जहन्न वंदणया । तहुग- तिगेणं मज्झा उद्योसा चउहिं पंचहिं वा ॥२४॥
( अन्वयः - अन्ने बिंति - 'इगेणं सक्कथएणं जहन्न, तद्दुमचउहिं पंचहिं वा उक्कोसा वंदणया ) ||२४||
तिगेण मज्झा,
शब्दार्थ : - अन्ने अन्य आचार्य, बिंति कहते है कि, सक्कत्थएणं = शक्रस्तव द्वारा, इगेणं = एक, जहन्ना = जघन्य, वंदणया = वंदन, तद्दुगतिगेणं = दो या तीन शक्रस्तव द्वारा, मज्झा = मध्यम, उक्कोसा = उत्कृष्ट, चउहिं = चार, पंचहिं= पाँच, वा= अथवा ||२४||
गाथार्थ :- अन्य आचार्य भगवंत कहते है कि एक नमुत्थुणं द्वारा जघन्य, दो या तीन द्वारा मध्यम और चार या पाँच द्वारा उत्कृष्ट (चैत्य) वंदना होती है ।
विशेषार्थ :- अन्य आचार्य भगवंतो का अभिप्राय है कि देव वंदन की जिस विधि में नमुत्थुणं एक बार आता है वह जघन्य, और दो या तीन बार आता है वो मध्यम तथा चार या पाँच बार न्मुत्थुणं आता हो उसे उत्कृष्ट चैत्यवंदन समझना ।
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