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एकबार गुरु भगवन्त वहाँ पधारे। दामन्नक ने धर्म देशना सुनी, जातिस्मरण ज्ञान से पूर्व भवमें मांस का प्रत्याख्यान किया उसका स्मरण हुआ। जिससे सम्यक्त्व प्राप्तकिया । धर्माराधना करके देव लोक में देव बना । वहाँ से कालपूर्ण कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्मलेकर, चारित्र ग्रहणकर मुक्तिपद को प्राप्त करेंगे। ॥ इति दामन्नक दृष्टान्तम ।
अवतरण:- प्रत्याख्यान भाष्य की समाप्ति के प्रसंग पर इस गाथा में प्रत्याख्यान करने से श्रेष्ठतम फल की प्राप्ति होती है, जिसे दर्शाया गया है। और इसी के साथ भाष्य पूर्ण होता है।
पच्चक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिनं । पत्ता अनंत जीवा, सासयसुक्खं अणाबाहं ॥४८||
शब्दार्थ : - इणं - इस, उद्दिडं उद्दिष्ट, कहे गये, पत्ता प्राप्त किया, सासयसुवनं= शाश्वत सुखके। मोक्षको अणाबाह- अनाबाध, पीड़ा रहित,
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गाथार्थ :- श्री जिनेश्वर प्रभु द्वारा कहे गये इस प्रत्याख्यान भाष्य का भावसे आचरण कर अनंत जीवोने पीड़ारहित मोक्ष सुख को प्राप्त किया | ॥ ४८ ॥
१. इन कुप्रवचनो में कितनेक वचन शास्त्रोक्त भी हैं। लेकिन शास्त्रो में तो इन वो का उल्लेख जीवों को धर्म सम्मुख करने की दृष्टि से कहे गये हैं, फिर भी इन्ही वचनों का प्रयोह प्रत्याख्यान धर्म को हल्का बताने के लिए बोलाजाने से कुप्रवचन कहा गया है।
२. मरुदेवी माता, भरत चक्री और श्रेणिकराजा इत्यादिने उद्यपि व्यक्त (लोक दृष्टि में आवे वैसा) प्रत्याख्यान धर्म नही पाया, फिर भी शास्त्र दृष्टि से तो व्रत - नियमादि अव्यक्त प्रत्याख्यान धर्म से ही मोक्षादि भाव प्राप्त किये है। फिर भी पांच इन्द्रियों के विषय
राधीन बने हुए हैं, तथा विषय भोग त्याग करने योग्य हैं, ऐसी मान्यतारुप श्रद्धामार्ग जो जीव अभितक नही आये हे वेहि ऐसे कुप्रवचन प्रगट करते है। स्वयं की विषय पराधीनता को बचाने के लिए भक्ष्याभक्ष्य के विवेक में कुछ जानते नही फिर भी आत्मधर्म दर्शाने के लिए प्रयत्न करते है।
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