SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - पाणस्स के आगार करना। (तात्पर्य उष्ण जल पीने के नियम में सर्वत्र पाणस्स के आगार बोलना)||२०॥ भावार्थ:- यदि श्रावकने तिविहार एकाशना किया हो तो उसे सचित्त आहार पानी | का त्याग करना चाहिये । और पाणस्स के आगार उच्चरना चाहिये । लेकिन दुविहार एकाशने में सचित्त का त्याग न किया हो तो पाणस्स के आगार उच्चरने की आवश्यकता नहीं। . ... अवतरण:- कौन कौन से व्रत में अचित्त जल पीना चाहिये ? उसका नियम इस गाथा में दर्शाया जा रहा है। इतुच्चिय खवणंबिल निवि आइसु फासुयं चिय जलं तु । सड्ढा वि पियंति तहा पच्चक्खंति य तिहाहारं ॥११॥ शब्दार्थ:- इतुचिय = इस हेतुसेही, इसीलिए, खवण = उपवास, चिय-निश्चय फासुयं = प्रासुक, निर्जीव, अचित्त, सड्ढावि = श्रावक भी . गाथार्थः- इस हेतु से ही उपवास, आयंबिल और नीवि विगेरे में श्रावक भी | निश्चय (अवश्य) प्रासुक - अचित्त जल पीवे तथा तिविहार का प्रत्याख्यान (उपवासादिक में) करे ॥१२॥ भावार्थ:- इस हेतु से ही (अर्थात् अचित्त भोजन व अचित्त जल पीने का नियम होने के कारण) श्रावक उपवास आयंबिल नीवि आदि में तथा एकाशन विगेरे में अचित्त भोजी श्रावक प्रासुक जल ही पीये, और प्रायः - विशेष से तिविहार का ही प्रत्याख्यान करे। (इति अवचूरि अक्षरार्थः) .. यहाँ सचित्त भोजी को भी उपवास, आयंबिल और नीवि ये तीन तो तिविहार या चौविहार ही होते हैं । जिससे इस व्रतों में उष्ण जल ही पीना चाहिये । और एकाशनादि में यथा संभव दुविहार, तिविहार, और चउविहार तीनों ही प्रकार से होते हैं । दुविहारवाले को अचित्त का नियम आवश्यक नहीं हैं । (ज्ञानविमलसूरिकृत बालावबोध) १. (यहाँ तात्पर्य यह है कि : श्रावक को भी व्रत में उष्ण जल पीना चाहिये । और प्रत्याख्यान विशेषतः तिविहार एकाशनादि करना चाहिये । दुविहार (एकाशनादिमें) तो किसी गाढ़ कारण से करने योग्य है । तथा व्रतों में कच्चा पानी (सचित्त जल) नही पीना चाहिये कारण कि मुख्य वृत्तिसे तो उत्तम श्रावक को सचित्त का सदैव त्याग करना चाहिये। इस विषय में कहा है कि) - 154
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy