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अवतरण :- पूर्वोक्त पचीस आवश्यक विधि पूर्वक करने से होने वाले लाभ का विवरण इस गाथा में दर्शाया गया है।
आवस्स- एसु जह जह, कुणइ पयत्तं अहीणमइरितं । तिविह करणोवउत्तो, तह तह से निज्जरा होइ ॥ २२ ॥
शब्दार्थ:- अहीणं अहीन, अन्युन, (अ) अइरितं अधिक ( नहि ), उवउन्त = उपयोगवत्त, से= उसको,
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गाथार्थ:- जो जीव गुरुवंदन के पच्चीस आवश्यकों (तथा उपलक्षण से मुहपत्ति और शरीर की पच्चीस प्रतिलेखना के विषय में) के विषय में तीन प्रकार के करणों से (मन-: वचन-काया द्वारा) उपयुक्त - उपयोगवन्त होकर जैसे जैस अन्युनाधिक (न्युन भी नहि • अधिक भी नहि एसा यथाविधि ) प्रयत्न करे वैसे वैसे जीवों की कर्म निर्जरा अधिक अधिक होती है। (उपयोग रहित अविधि से हीनाधिक करे तो वैसे मुनि को भी विराधक समजना ।
विशेषार्थ:- सुगम है।
अवतरणः - २३, २४, और २५ वीं गाथा में गुरुवंदन ( दादशावर्त वंदन) में टालने योग्य ३२ दोषों का १३ वाँ द्वार कहा गया है।
दोष 'अणाढिय थढिय, 'पविद्ध परिपिंडियं च 'टोलगई । 'अंकुस 'कच्छ भरिंगिय, 'मच्छुव्वत्तं 'पणपउडं ॥ २३ ॥
"वेsयबद्ध "भयंतं, "भय "गारव "मित्त "कारणा "तिनं । "परिणीय "रुह "तज्जिय, "सढ "हीलिय "विपलिउचिययं ||२४||
दिनमदिहं "सिंगं, "कर "तम्मोअण "अलिद्धणालिद्धं । “ऊणं "उत्तरचूलिअं. "मूअं "ढइटर "चुडलियं च ॥ २७ ॥ शब्दार्थ:- गाथार्थ के अनुसार
*. धर्मानुष्ठान उत्तरोत्तर विकसित भावों से करना श्रेष्ठ ही है । फिरभी ये बात अनियत विधिवाले धर्मकार्यके विषय में समजना और नियत (मर्यादित) विधिवाले धर्मकार्यो में धर्मानुष्ठानो में तो जो विधि मर्यादित की हो उस विधिसे किंचित न्युनधिक किये बिना करनी चाहिये। विधि मार्ग अवस्थित होने पर धर्म विच्छेद होने का प्रसंग उपस्थित हो सकता है।
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