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अध्यात्म-कल्पद्रुम
विवेचन हे भव परम्परा में पड़े हुए आत्मा ! तूं ज़रा ठण्डे दिमाग से सोच तो सही कि तेरे शत्रु तथा मित्र कौन हैं ? राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मिथ्यात्त्व, अविरति, प्रमाद ये तेरे शत्रु हैं। उपशम (शांति) विवेक संवर तेरे मित्र हैं। इनको पहचान और अपना कल्याण करने वाले मित्रों के संपर्क में रहकर आत्म कल्याण कर ले । सच्चा ज्ञान दर्शन, चारित्र, सच्चे देव गुरु धर्म तेरे हितैषी हैं । अज्ञानता, शंका, अत्याग, कुदेव, ढोंगीगुरु व अधर्म तेरे अहितकर या द्वेषो हैं । तेरा स्वकीय तू स्वयं है, तेरा दूसरा कोई अपना नहीं है । तू सत् चित्त आनन्दमय (सच्चिदानंद) है । ऐसे लक्षण संसार की समस्त वस्तुओं में से किसी में नहीं है अतः तेरा कोई नहीं है । ये सब नाशवान हैं । ये तुझे जकड़ के रखना चाहती हैं । घर जमीन-जेवर-वस्त्र-पात्र-मोटर सब पराए हैं । कुटुम्ब का कोई व्यक्ति तेरा नहीं है । स्वार्थ के वशीभूत हुए ये सब जब तक तुझमें शक्ति है, धन है, बुद्धि है, शारीरिक बल है तब तक तेरे हैं परन्तु शरीर. थक जाने पर, वृद्धावस्था आने पर, या निर्धन होने पर ये सब उसी प्रकार छोड़ देंगे जिस प्रकार फलहीन वृक्ष को पक्षी, तेल रहित तिलों की खल को तेलो छोड़ देते हैं । जैसे रस निकालने के बाद हम आम के छिलके और गुठली को छोड़ देते हैं या कोल्हू में पीसकर रस निकालने के पश्चात् गन्ने के छिलके को किसान छोड़ देता है वैसे ही परिवार वाले भी हमें छोड़ देंगे। मात्र तू ही तेरा मित्र है, हितैषी है और स्वकीय है। अतः मृत्यु आने से पूर्व अपना हित कर ले, फालतू चापलूसों की संगति से भव