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श्री आनंदघन पद्य रत्न
(१) क्या सोवे उठ जाग बाउरे ॥ क्या० ॥ टेक ॥ अंजलि जल ज्युं आयु घटत है,
देत पहोरिया. घाउ रे ॥ क्या० ॥ १ ॥ इंद्र चंद्र नागिंद्र मुनिंद्र चले, कोण राजा पतिसाह राउरे ; भमत भमत भवजलधि पायके,
भगवंत भजन विन भाऊ नाऊ रे ॥ क्या० ॥२॥ कहा विलंब करे अब बाउरे, तरी भवजलनिधि पाउ; प्रानंदघन चेतन मय मूरति, शुद्ध निरंजन देव ध्याउ रे ॥३॥
(२) रे घरियारी बाउरे, मत घरीय बजावे; नर सिर बांधत पाघरी, तू क्या घरीय बजावे ॥रे घरि०॥१॥ केवल काल कला कले, वै तू अकल न पावे; अकल कला घट में धरी, मुझ सो घरी भावे रे घरि०॥२॥ आतम अनुभव रस भरी, या में और न भावे; . आनंदघन अविचल कला, विरला कोई पावे ॥ रे घरि॥३॥
शब्दार्थ-बाउरे = पागल । पहोरिया = पहरेदार । घरिय = घंट, घड़ी । भाउ = भाई । नाउ = नहीं। पाघरी = पाव धड़ी, पगड़ी । अकल = अदृश्य । मावे = समावे।