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________________ ४२२ . अध्यात्म-कल्पद्रुम (यही मुख्य धर्माचरण है) बाकी सब जो विस्तार से कहा है वह सिद्धांत के बाहर का है । (९-३५) अपने भीतर और बाहर, दोनों प्रकार के सत्य को जानकर जो स्वयं को व पर को तारने में समर्थ है वैसे जगत के ज्योति रूप, तथा धर्म को साक्षात्कार कर उसे प्रगट करने वाले (महात्मा) की संगति में सदा रहना चाहिए। (१२-१६) सर्वस्व का त्याग करके रूखे सूखे आहार पर जीने वाला बनकर भी जो गर्विष्ठ (अभिमानी) तथा स्तुति की इच्छा वाला होता है; उसका सन्यास उसकी आजीविका (का साधन) है । ज्ञान पाए बिना वह बार बार संसार में भटकेगा। जो मनुष्य अपनी प्रज्ञा (बुद्धि) के कारण से या अन्य किसी विभूति के कारण से मदमत्त (अभिमानी) होकर दूसरे का तिरस्कार करता है, वह समाधि प्राप्त नहीं कर सकता है। (१३-१४) शास्त्र सीखने की इच्छा वाला, काम भोगों का त्याग कर, प्रयत्न पूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा गुरु की आज्ञा का पालन करते करते चारित्र की शिक्षा प्राप्त करे। चतुर शिष्य प्रमाद न करे। (१४-१) धर्म का साक्षात्कार करके जो ज्ञानी उपदेश देते हैं, वे ही संशय का अंत ला सकते हैं । अपनी और दूसरों की मुक्ति
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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