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________________ शुभवृत्ति ३६१ श्रुतज्ञान, कयवन्ना सेठ जैसा सौभाग्य गजसुकुमाल जैसी समता, शक्ति के रूप में सब आत्माओं में रही हुई है मात्र पुरुषार्थ करके उसे प्रकट करने की आवश्यकता है इसी कारण से आत्मा को “समर्थ" कहा है । हे समर्थ आत्मा, तू उपरोक्त श्लोक के अनुसार आचरण कर । उपसंहार-शुभ प्रवृत्ति करने वाले की गति इति यतिवरशिक्षां योऽवधार्य व्रतस्थश्चरणकरणयोगानेकचित्तः श्रयेत । सपदि भवमहाब्धिं क्लेशराशि स तीर्वा, विलसति शिवसौख्यानंत्यसायुज्यमाप्य ॥ १० ॥ अर्थ-यतिवरों के संबंध में बताई हुई शिक्षा जो व्रतधारी (साधु और उपलक्षण से श्रावक) एकाग्रचित से हृदय में ठसाता है और चारित्र तथा क्रिया के योगों को पालता है वह संसार समुद्र रूप क्लेश के समूह को एकदम तरकर मोक्ष के अनंत सुख में तन्मय होकर स्वयं आनन्द पाता है । ॥ १०॥ मालिनी विवेचन उपकारी की वृत्ति सदा उपकार करने में ही लगी रहती है, सच्चा उपकारी वही है जो सदा काल का दुःख मिटा देता हो, थोड़े समय के उपकार की अपेक्षा अनंतकाल का सुख दिलाने का जो मार्ग बताता है वही सर्वोत्तम उपकारी है । ऐसे परमोपकारी तीर्थंकर प्रभु, गणधर पूर्वाचार्य, आदि ने जीवों के उपकार के लिए उपरोक्त उपदेश दिया।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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