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शुभवृत्ति
३८३ विवेचन हे साधु ! तू निरर्थक बातों को छोड़कर स्वाध्याय कर, सज्झाय पढने में चित्त को लगा जिससे तेरा मन संसार में भटकने से रुक जाएगा। प्रागम ग्रंथों का अध्ययन न्याय की बुद्धि से कर, तेरी दृष्टि किसी विशेष वाडे बंदी के अंजन से प्रांजी हुई नहीं होनी चाहिए नहीं तो तू अपने उसी संकुचित दृष्टि के द्वारा अर्थ का अनर्थ कर बैठेगा और स्वयं भो डूबेगा और अनेक भोले जीवों को भी डुबा देगा। माध्यस्थ बुद्धि नहीं होने से आज उत्सूत्र प्ररूपणा बड़े बड़े प्राचार्यों द्वारा हो रही है, परिणामतः समाज में झगड़े फैले हुए हैं, नए पंथ, फिरके भी इसी कारण से बढ़ गए हैं अतः आगम के अर्थ का माध्यस्थ बुद्धि से अनुकरण कर, अपने कुल, जाति, आदि के व विद्या आदि के अभिमान को छोड़कर विधिवत गोचरीकर, इन्द्रियां जो हर समय अपने इच्छित पदार्थों की ओर झुकतीं हैं उनको वश में कर के सच्चे आनंद का अनुभव कर, सांसारिक राग, सन्मान, भोगेच्छा, पुद्गल वस्तुओं का संग्रह तुझे वर्जित है ही अतः उन वस्तुओं से परे रह जिससे तुझे किसी प्रकार का विषाद नहीं होगा इस तरह से तेरा मार्ग उत्तम बनेगा ॥४॥
उपदेश-विहार
ददस्व धर्माथित यैव धान सदोपदेशान् स्वपरादि साम्यान् । जगद्धितैषा नवभिश्च कल्पैर्गामे कुले वा विहराऽप्रमत्तः ॥५॥
अर्थ-हे मुनि ! तू धर्म प्राप्त करने के हेतु से इस प्रकार के धर्मानुसार उपदेश दे कि जो स्व और पर के विषय में