SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश ३७७ सोचकर बोलता है, समझकर बरतता है । ठीक उसी तरह से अनंतकाल से मिथ्यात्व के प्रवाह में खींचा जाता हुवा वह प्राणी तो चाहे जैसे बोले, मन, वचन, काया के अशुभ योग से किसी को दुःख दे पीड़ा दे, उसके पास तो कुछ खोने जैसा है ही नहीं परन्तु जिसके पास तपस्यारूपी धन है, महान गुणोंरूपी रत्न की मंजूषा है वह उसके नाश के भय से योग (मन, वचन, काया) का संयम क्यों नहीं करता है ? पहला प्राणी जन्म से दुःखी है, उसे अपने दुःख का संताप नहीं है, भव में भटकता है, ठोकरें खाता है, उसके लिए उसे पश्चाताप नहीं है न उसे सत्कर्म करने की अभिलाषा है न सद्गति पाने की उत्कंठा है परंतु जो ज्ञानी है, जिसने सन्मार्ग का अनुसरण किया हे, तप संपादन किया है तो फिर उन सबके नाश के भय से वह योग संवर क्यों नहीं करता है ? क्रियावंत शुभमार्ग में अवश्य प्रवृत्ति करे । मन योग के संवर की मुख्यता भवेत्समग्रेष्वपि संवरेष, परं मिदानं शिवसंपदां यः । त्यजन् कषायादिजदुर्विकल्पान्, कुर्यान्मनः संवरमिद्धधीस्तम् ।२१। अर्थ मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करने के बड़े से बड़े कारण रूप सर्व प्रकार के संवर में भी मन का संवर है, ऐसा जानकर समृद्धबुद्धि जीव कषाय से उत्पन्न हुए दुर्विकल्पों को छोड़कर मन का संवर करे ॥ २१ ॥ उपजाति . विवेचन–सच्चा सुख तो मोक्ष में ही है इसका जिसको ४६
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy