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________________ हमारे लिए कुछ भी नहीं किया, उनको मोह ही नहीं है । इस प्रकार से हम रसना इन्द्रिय को प्रसन्न रखने में तरह तरह के पाक - मेवे - मिठाई - चटनी आदि बनाते हैं और हमारा अधिक से अधिक समय व धन इसी काम में खर्च होता है साथ ही आरंभ सारंभ ( जीव हिंसा) भी होता है । मीठे के कारण अनेक छोटे छोटे जीव जन्तु आकृष्ट होकर मर जाते हैं और हमारा नरक का मार्ग सरल करते हैं । रसना के वशीभूत होकर हम बेपरवाही से जंतुत्रों को निमंत्रित कर उनका घात करते हैं और अपनी कुगति निश्चित करते हैं । जीभ वश में न रहने के कारण अनेक लड़ाई झगड़े होते हैं, मार्मिक शब्दों का प्रहार भी इसी से होता है एवं प्रशांति की जड़ भी यही है | मछली पकड़ने वाले कांटे के मुख पर आटे की गोलियां लगा देते हैं । भोली मछली आटा खाने के साथ ही उस कांटे में लटककर अपना प्राण खोती है । शास्त्रकार कहते हैं कि : - इन्द्रियों में रसेन्द्रिय, कर्मों में मोहनीय, व्रतों में ब्रह्मचर्य और गुप्ति में मनगुप्ति ये चारों सबसे अधिक कठिनता से जीते जा सकते हैं । - श्लोक – अरकाण रसणी कम्माण मोहणी तहचेव बंभवयम | - गुत्तीण यमणगुत्ती, चउरो दुक्खेहिं जिप्पति । स्पर्शेन्द्रिय संयम त्वचः संयममात्रेण, स्पर्शान् कान् के त्यजन्ति न । मनसा त्यज तानिष्ठान् यदीच्छसि तपः फलम् ॥ १६ ॥ अर्थ- चमड़ी के स्पर्श न करने मात्र से कौन स्पर्श का
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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