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________________ ३६८ अध्यात्म-कल्पद्रुम श्रोत्रेन्द्रिय संवर श्रुतिसंयममात्रेण, शब्दान् कान् के त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, दागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १२ ॥ अर्थ-कान के संयम मात्र से कौन शब्दों को नहीं त्यागते हैं, परन्तु इष्ट और अनिष्ट शब्दों परराग द्वेष छोड़ देने वाले को ही मुनि कहते हैं ।। १२ ॥ अनुष्टुप विवेचन—एकेंद्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के कान नहीं होते हैं एवं बहरे मनुष्य भी सुन नहीं सकते हैं तथा कानों में ऊंगली डालने या रूई लगाने से भी सुना नहीं जा सकता है परन्तु यह श्रोत्रेन्द्रिय का संयम नहीं कहलाता है। धन्य तो वह है जो मधुर राग रागिनी या पियानो आदि के शब्दों में राग नहीं करता है, एवं काक गर्दभ आदि के कर्कश शब्दों पर द्वेष नहीं करता है, दोनों में समान भाव रखता है। जो अपनी प्रशंसा के शब्दों पर मुग्ध नहीं होता है एवं निंदा के शब्दों पर द्वेष नहीं करता है, वही सच्चा मुनि है। इन्द्रिय पराजय शतक में लिखा है, "जीवन को प्रशाश्वत जानकर, मोक्षमार्ग के सुख को शाश्वत जानकर और आयुष्य को परिमित जानकर इन्द्रिय भोग से विशेष बचना चाहिए । "मृग और सर्प श्रोतेंद्रिय के असंयम से फंसते हैं। चक्षुरिन्द्रिय संवर चक्षुःसंयममात्रात्के, रूपालोकांस्त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १३ ॥
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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