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. मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश - ३६१ (प्रथकत्व वितर्क सविचार, एकत्व वितर्क सविचार, एकत्व वितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रिय और उच्छिन्नक्रिय) इस ध्यान का विषय अधिक सूक्ष्म है । इसका ज्ञान योग शास्त्र से जानें। तात्पर्य यह है कि ऐसे धर्म और शुक्ल ध्यान में मन को लगा कर स्थिरता प्राप्त करने से महालाभ होता है।
चित्त की स्थिरता प्राप्त करने का उपाय यह है कि मन को निरंतर सुध्यान में प्रेरित करना। उक्त घ्यान से प्राणी को इन्द्रियों से अगोचर आत्मसंवेद्य सुख प्राप्त होता है।
सुनियंत्रित मनवाले पवित्र महात्मा साथ निरर्थकं वा यन्मनः सुध्यानयंत्रितम् । विरतं दुविकल्पेभ्यः पारगांस्तान् स्तुवे यतीन् ॥ ५॥
अर्थ सार्थकता से अथवा निष्फल परिणाम वाले प्रयत्नों से भी जिनका मन सुध्यान की तरफ लगा रहता है और जो खराब विकल्पों से दूर रहते हैं वैसे-संसार से पार पाए हुए यतिनों की हम स्तुति करते हैं ॥ ५॥ अनुष्टुप
विवेचन – "सार्थ" अर्थात शुभ परिणाम वाला कार्य, ऐसे ही हेतु से परिणाम (फल) के लिए बहुत चिंता न रखने का शास्त्र में कथन है। "भवन्ति भूरिभिर्भाग्यधर्मकर्म मनोरथाः । फलन्ति यत्पुनस्ते तु तत्सुवर्णस्य सौरभम्" । अर्थात धर्म कार्य करने के मनोरथ ही महाभाग्य से होते हैं और यदि वे शुभ फल दें तो सोने में सुगंध जैसा समझना।