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अध्यात्म
काम नहीं करता है परंतु मन वचन से तो गृहस्थों को शय्या आदि कामों के लिए प्रेरित करता रहता है तो फिर तू मुमुक्षु कैसा ? ॥४८॥
उपजाति विवेचन-दीक्षा लेने के पश्चात मानव पूरी तरह से अंकुश में आ जाता है। आत्मार्थी को तो इसमें खूब आनंद आता है । जिसे आनंद आता है वही सच्चा साधु है लेकिन कई भारी कर्मी जीव इस अवस्था में आने के बाद भी मन की अभिलाषाओं से पराजित होकर कई आदेश उपदेश देकर मनोवांछित कार्य साधते हैं व वस्तु मंगाते हैं अतः वे मुमुक्षु नहीं हैं । दीक्षा लेकर प्रतिदिन यह प्रतिज्ञा नौ बार ली जाती है, कि, “सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं" इत्यादि । जिसका अर्थ है कि हे प्रभु ! मैं सभी प्रकार के पापकारी कार्यों को जीवन पर्यंत नहीं सोचूंगा, करने का उपदेश नही दूंगा और स्वयं भी नहीं करूंगा और करते हुए को भला भी नहीं जानूंगा।" परंतु प्रतिदिन तू अपनी सुख साधना के लिए वैसा उपदेश या आदेश देता है यह तो तेरी प्रतिज्ञा का भंग है जो मृषावाद भी है अतः तू मन वचन और काया से प्रतिज्ञा का पालन कर।
दिखते हुए प्रशस्त सावध कर्मों का फल कथं महत्वाय ममत्वतो वा, सावद्यमिच्छस्यपि संघलोके । न हेममय्यप्युदरे हि शस्त्री, क्षिप्ता क्षणोति क्षणतोऽप्यसून किम् ४६ . अर्थ तू अपने महत्व के लिए या ममत्व के लिए संघलोक