SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३६ अध्यात्म काम नहीं करता है परंतु मन वचन से तो गृहस्थों को शय्या आदि कामों के लिए प्रेरित करता रहता है तो फिर तू मुमुक्षु कैसा ? ॥४८॥ उपजाति विवेचन-दीक्षा लेने के पश्चात मानव पूरी तरह से अंकुश में आ जाता है। आत्मार्थी को तो इसमें खूब आनंद आता है । जिसे आनंद आता है वही सच्चा साधु है लेकिन कई भारी कर्मी जीव इस अवस्था में आने के बाद भी मन की अभिलाषाओं से पराजित होकर कई आदेश उपदेश देकर मनोवांछित कार्य साधते हैं व वस्तु मंगाते हैं अतः वे मुमुक्षु नहीं हैं । दीक्षा लेकर प्रतिदिन यह प्रतिज्ञा नौ बार ली जाती है, कि, “सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं" इत्यादि । जिसका अर्थ है कि हे प्रभु ! मैं सभी प्रकार के पापकारी कार्यों को जीवन पर्यंत नहीं सोचूंगा, करने का उपदेश नही दूंगा और स्वयं भी नहीं करूंगा और करते हुए को भला भी नहीं जानूंगा।" परंतु प्रतिदिन तू अपनी सुख साधना के लिए वैसा उपदेश या आदेश देता है यह तो तेरी प्रतिज्ञा का भंग है जो मृषावाद भी है अतः तू मन वचन और काया से प्रतिज्ञा का पालन कर। दिखते हुए प्रशस्त सावध कर्मों का फल कथं महत्वाय ममत्वतो वा, सावद्यमिच्छस्यपि संघलोके । न हेममय्यप्युदरे हि शस्त्री, क्षिप्ता क्षणोति क्षणतोऽप्यसून किम् ४६ . अर्थ तू अपने महत्व के लिए या ममत्व के लिए संघलोक
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy