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________________ अध्यात्म- कल्पद्रुम केवल वेश धारण करने वाले को तो दोष ही प्राप्त होता है वेषेण माद्यसि यतेश्चरणं विनात्मन् पूजां च वांछसि जनाद्बहुधोपध च । मुग्धप्रतारणभवे नरकेऽसि गंता, न्यायं बिभषि तदजागलकर्तरीयम् ।। ५ ।। २८२ अर्थ – हे आत्मा ! तू बरताव ( चारित्र) रहित, केवल यति के वेश से ही अक्कड़ (अहंकार) करता है और फिर लोकों से पूजा की इच्छा रखता है और ग्रनेक प्रकार से ( वस्त्र पात्र आदि ) उपाधि पाने की इच्छा रखता है; जिससे भोले ( विश्वास करने वाले) लोगों को ठगने से प्राप्त किए हुए नरक में तू अवश्य जाने वाला है ऐसा प्रतीत होता है । निश्चित ही तू 'प्रजागल कत्तरी न्याय' को धारण करता है ।। ५ ।। वसंततिलका विवेचन-किसी कसाई ने मांस की इच्छा से एक बकरी पाली । एक बार उसे मारने के लिए वह छुरी ढूंढने लगा परन्तु छुरी नहीं मिली । बकरी स्वभाव से ही पैर से मिट्टी खुरचती रहती है, एक दिन मिट्टी खुरचते खुरचते जमीन में से एक छुरी निकली, उसे ढांकने के लिए वह ज्यों हीं गरदन उसपर रखकर बैठी कि गला कट गया । इसे अजागल कत्तरी न्याय कहते हैं । जैसे बकरी ने स्वयं ही अपनी मूर्खता से गला कटाया एवं छुरी को छुपाने की इच्छा अज्ञानता से अपना नाश किया वैसे ही अपनी आत्मा के कल्याण की से
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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