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गुरुशुद्धि
२७१ ही होते हैं । ऐसे गुरु का योग होने पर भी जो उनके ज्ञान का लाभ नहीं उठाता है वह ऊपर के दृष्टांत की तरह प्यासा, भूखा व दरिद्री ही रहता है। श्रद्धा बिना की क्रिया व तप एक (१ संख्या) बिना की शून्य (०) समझना चाहिए। जैसे कोई अंक १ न लिखकर चाहे जितने शून्य लिख दे उनका कोई महत्व नहीं है वैसे ही सच्चो श्रद्धा बिना की तपस्याएं, शून्यवत हैं उनका कोई महत्त्व नहीं है । अतः उस (१) एक अंक की प्राप्ति के लिए सद्गुरु का लाभ लेना चाहिए जो पालस्य में प्रमाद में रहता है वह दुर्भागी है, मूर्ख है। , देव गुरु धर्म पर आंतरिक प्रेम के बिना जन्म निरर्थक है न धर्मचिता गुरुदेवभक्तिर्येषां न वेराग्यलवोऽपि चित्ते । तेषां प्रसूक्लेशफलः पशूनामिवोद्भवः स्यादुदरंभरीणाम् ॥१६।।
अर्थ-जो प्राणी धर्मसंबंधी चिंता, गुरु और देव के प्रति भक्ति या वैराग्य का अंश भी चित्त में धारण न करते हों वैसे पेट भरों का जन्म पशु की तरह से जन्मदातृ को कष्ट देने वाला ही हुवा ।। १६ ।।
विवेचन . जो मनुष्य मनमानी तरह से दिनचर्या करते हैं, मौज शौक में पूरा जीवन बिताते हैं न धर्म का विचार है, न देव गुरु की भक्ति है, न हृदय में वैराग्य है, मस्त हाथी की तरह झूमते हुए चलते हैं, कहते कुछ हैं करते कुछ हैं, कपड़ों से सभ्य, करणी से असभ्य ऐसे मनुष्यों का जन्म निरर्थक गया, उनके जन्म से उनकी माता को प्रसव पीड़ा