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________________ २६८ अध्यात्म-कल्पद्रुम भी ऊंचा नहीं हो सकता है !" अरे प्राणी ! इस लोक में पेट भरने के लिए दिन रात में १२ घंटे खर्च करता है जब कि परलोक के सुधारने के लिए तेरे पास १२ मिनट भी नहीं है ? तू बेखबर होकर अपने पूर्वसंचित पुण्य को नष्ट कर रहा है एवं नया पुण्य धन कुछ कमा ही नहीं रहा है विपरीत इसके अनर्थ दंड (नाटक, सिनेमा, सर्कस देखना मकान बंगले, भोजन संबंधी बातचीत राजकथा एवं युद्ध की बातें करना आदि) द्वारा पापधन कमा रहा है, तुझे ही तो अपनी करनी का फल भोगना पड़ेगा अतः सावधान होकर इन चारों कामों को अवश्य कर जिससे तू भवोभव में सुख प्राप्त करेगा। (१) भक्तिपूर्वक प्रभु का पूजन (द्रव्य से या भाव से)। (२) सद्गुरु के पास से निरंतर धर्मश्रवण । (३) स्थूल विषयों से दूर रहकर उनका यथाशक्ति त्याग। (४) अकारण या सकारण पापों से निवृत्ति । सुगुरू सिंहः कुगुरू सियार चतुष्दैः सिंहइव स्वजात्यैमिलन्निमांस्तारयतीह कश्चित् । सहैव तैर्मज्जति कोऽपि दुर्गे, शृगालवच्चेत्यमिलन् वरंसः ॥१४॥ अर्थ-जिस प्रकार से अपनी जाति के प्राणियों को मिलकर सिंह ने तार दिया उसी प्रकार से कोइ (सुगुरू) अपने जाति भाई (भव्य पञ्चेद्रिय) को मिलकर इस संसार समुद्र से तारते हैं; और जिस प्रकार से सियार अपने जाति भाइयों के साथ डूब मरा वैसे ही कोइ (कुगुरू) अपने
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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