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अध्यात्म-कल्पद्रुम
छपवाता है और अपने नाम की कीर्ति दिगंत में पहुँचाता है, इससे तेरा स्वयं का हित कुछ भी नहीं है अतः हे बुद्धिमान इन तपादि के साधारण कष्टों से जिन्हें तू जानबूझकर सहता है, मत डर और नरकादि महान कष्टों से दूर रहने का उपाय कर । तेरी माला, पाठ पूजा अोलियां या उपधान तुझे तब तक नहीं बचा सकेंगे जब तक कि तू उन्हें समझकर वीतराग के फरमाए हुए मार्गों व भावनाओं से न करेगा, यदि दिखावा किया तो उनका फल कपूर की तरह उड़ जाएगा और तेरा सहन किया हुवा कष्ट निरर्थक जाएगा अतः आत्म जागृति से क्रिया सब कर, कष्ट सहन कर, डर मत, कल्याण निश्चित है।
उपसंहार-पाप का डर क्वचित्कषायैः क्वचन प्रमादः, कदाग्रहैः क्वापि च मत्सराद्यः। प्रात्मानमात्मन् कलुषाकरोषि, विभेषि धिङ, नो नरकादधर्मा २६
अर्थ हे आत्मन् ! कभी कषाय करके, कभी प्रमाद करके, कभी हठ करके और कभी मात्सर्य करके तू अपने आपको मलिन (अपने आत्मा को कलुषित) करता है ! अरे तुझे धिक्कार है । तू ऐसा अधर्मी है कि नरक से भी नहीं डरता है ? ॥ २६ ॥
उपजाति
____ विवेचन—संसार में रहते हुए अनेक कारणों से तू अपने आपको कलुषित करता है व सच्ची शांति को खो देता है। तेरे पर एक ऐसा नशा छाया रहता है कि तू अपने आपको