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वैराग्योपदेश
२२७ पाप कर्मों में चतुराई दिखाने वालों के लिए प्रगल्भसे कर्मसु पापकेष्वरे, यदाशया शर्म न तद्विनानितम् । विभावयंस्तच्च विनश्वरं द्रुतं, विभेषि किं दुर्गतिदुःखतो न हि १६
अर्थ-जिस सुख की इच्छा से तू पाप कर्मों में मूर्खता से लवलीन होता है, वे सुख जीवन के बिना किसी काम के नहीं. हैं और जीवन तो शोघ्र नाश होने वाला है ऐसा जब तू समझता है तब हे भाई ! तू दुर्गति के दुःखों से क्यों नहीं डरता है ? ।। १६ ॥
वंशस्थ विवेचन-जब तक इस शरीर में सुख को अनुभव करने वाली शक्ति अर्थात आत्मा है तभी तक तेरे सुख काम के हैं मृत्यु के बाद वे साथ आते नहीं हैं परन्तु उन सुखों को प्राप्त करते हुए जो तू ने पाप, अनाचार, अत्याचार किए हैं वे तो साथ आवेंगे ही। जरा सोच, किसी न किसी प्रकार से एकत्रित किए गए तेरे - आराम के साधन तो इस जीवन तक ही साथ रहेंगे लेकिन उनको प्राप्त करने में किए गए पाप कई भवों तक तेरे साथ रहकर तुझे उन सुख साधनों से दूर रखते रहेंगे । यह जीवन नाशवान होने से उन सबको तू छोड़कर जावेगा ही यह तू जानता भी है फिर भी दुर्गति से क्यों नहीं डरता है ? ओह ! इन पुद्गल पदार्थों के पाकर्षण में तू कितना खो गया है। तू मानता है कि मैं मरूंगा ही नहीं और ये बंगले, मोटर रेडियो या बाग बगीचे हमेशा मेरे पास रहेंगे। तू भूला है, जिनको अपना मान रहा है वे तेरे हैं ही नहीं, तू मरा नहीं कि दूसरे मालिक बने