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अध्यात्म-कल्पद्रुम
वस्तुओं को आकंठ खा गया, वे नहीं पची और दस्तें लगनी शुरू हुई, दवाइयां आने लगी और वह रोग शैया पर जा पड़ा उसका सुख दुःख में पलट गया। मानव एकाकी व स्वावलंबी न रह सका एवं इन्द्रिय जनित काम विकार को न जीत सका अतः गृहस्थाश्रम को सुख का साधन मानकर उसने विवाह किया। पहले स्वयं के खाने पीने व रहने की चिंता थी अब दो की हुई । कमाई का अधिक भाग घरगृहस्थी के राच रचीले व सामान खरीदने में जाने लगा । उसने नया घर बसाया, बाल बच्चे हुए और उसकी चिन्तावेलड़ी के नई कूपलें फूटने लगीं। कमाई उतनी हो, खर्च अधिक । कर्ज की रस्सी गले में बंधती है, धीरे धीरे वह फांसी का फन्दा बन जाती है। यह है मानव का माना हुवा सुख । तमाम दिन इसी उधेड़बुन में रहने से आत्मा परमात्मा के विषय में सोच ही नहीं पाता व जैसा आया था उससे भी खराब कर्म लिए चला जाता है परिणामतः अनेक अधोगतियों में कई तरह के कष्ट सहता है। अतः इस क्षणिक माने हुए सुख की अपेक्षा सच्चे सुख की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रमाव से दुःख-शास्त्रगत दृष्टांत उरभ्रकाकिण्युदबिंदुकाम्र, वणिक्त्रयोशाकटभिक्षुकाद्यः। निदर्शनैरेरितमय॑जन्मा, दुःखी प्रमादैर्बहु शोचितासि ॥ १३ ॥
अर्थ-प्रमाद के द्वारा हे जीव ! तू मनुष्यभव को खो बैठता है और इससे दुःखी होकर बकरे, काकिणी, जलबिन्दु,