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________________ शास्त्राभ्यास और बरताव १७१ अवस्था में वे भूख प्यास से छटपटाते हुए मृत्युदेवी की शरण में जाते हैं। मानव की यह लीला तमाशे की वस्तु न होकर उस स्वयं को इसी गति में निश्चित निमंत्रण देती है। ओह ! वे भोले हिरण या रोज़ जंगल में रोगासन्न हो जाते हैं तो उनको कौन दवा लाकर देता है ! कौन उन्हें घास लाकर डालता है, कौन उन्हें पानी पिलाता है। मूक पशु संवेदना से, पारस्परिक स्नेह से उस रोगी पशु के पास अल्पकाल के लिए चाहे स्थिरता कर सकते हों लेकिन न तो वे दवा ला सकते हैं न घास पानी ही पहुंचा सकते हैं, इतनी उनमें बुद्धि ही नहीं होती। इस प्रकार के अनेक कष्ट इस पशु पक्षी योनी में होते हैं । हे मानव! यदि तू सच्चा मानव है तो इन सबको शांत चित्त से विचार कर इस गति के अपने निश्चित गंतव्य (रिजर्वेशन) को खतम कर। इस गति में गया हुवा प्राणी यदि हिंसक शरीरधारी सिंह या व्याघ्र हुवा या विषैला सर्पादि हुवा तो कितने ही अन्य जीवों को मारकर नरक तिर्यंच योनि की घटमाला को बनाता रहता है अतः सावधान हो जा। देवगति के दुःख मुधान्यदास्याभिभवाभ्यसूया, भियोऽन्तगर्भस्थिति दुर्गतीनाम् । एवं सुरेष्वप्यसुख नि नित्यं किं तत्सुखैर्वा परिणामदुःखैः ॥१३॥ __अर्थ इन्द्रादि की निष्प्रयोजन सेवा करना, पराभव, मत्सर, अंतकाल, गर्भस्थिति, एवं दुर्गति का भय । इस प्रकार
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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