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अध्यात्म-कल्पद्रुम
अतः शास्त्र पढ़कर उनमें उपदिष्ठ मार्ग का अनुसरण करना चाहिए । उपदेश माला में धर्मदासगणिजी ने कहा है कि:जहा खरो चंदनभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदनस्य । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागो न हु सुगाइए ||
अर्थात जिस प्रकार से चन्दन का भार उठाने वाला गधा केवल भार का ही भागी है न कि, चंदन का, वैसे ही आचरण बिना के ज्ञान को जानने वाला मात्र ज्ञान का भागी है न कि सुगति का ।
अपने उपदेश द्वारा दूसरों को वैराग्यवासित करने वाले या व्रत नियम दिलाने वाले यदि स्वयं रसना के या कीर्ति के लोलुपी हों तो वे भी गर्दभ तुल्य हैं । ज्ञानी द्वारा फरमाई हुई क्रिया, ज्ञान सहित अवश्य करते रहना चाहिए नहीं तो प्रमाद प्राए बिना नहीं रह सकता है और प्रमाद आया नहीं कि पतन हुवा नहीं ।
"क्रियारहित मात्र अकेला ज्ञान पंगु है । जैसे मार्ग जानने वाला भी जब तक उस और गति नहीं करता है तब तक गंतव्य नगर को पहुंच नहीं सकता है । ( ज्ञानसार - २ ) ।
चतुर्गति के दुःख- नरकगति के दुःख
दुर्गंधतो यदणुतोपि पुरस्य मृत्युरायूंषि सागरमितान्यनुपक्रमाणि । स्पर्शः खरः क्रकचतोऽतितमामितश्च, दुःखावनंतगुणितौ भृशशैत्यतापौ ॥ १० ॥