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कषायत्याग
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होने तक यह प्रवृति मोक्षदायी नहीं हो सकती है। तपस्या के साथ ही साथ मान का त्याग हो तब ही लक्ष तक पहुंचा जा सकता है। तपस्या करते हुए क्रोध तथा मान का साम्राज्य सन्मुख उपस्थित होता है । आत्म प्रशंसा श्रवण की इच्छा सहज हो जाती है, एक तरह का मीठा नशा छा जाता है और शनैः शनैः मान वृद्धि होती जाती है यदि मान की कमान हाथ में न हो तो वह तपस्या केवल कष्ट क्रिया ही साबित होती है। ऋषभदेव भगवान के द्वितीय पुत्र बहुबलजी ने अपने भाई भरतजी को हराकर राज्य का त्याग तो किया लेकिन मान का त्याग न कर सके। अपने छोटे भाई जो पहले दीक्षित हो चुके थे उनको वंदना करना उन्हें अनुचित प्रतीत हुवा अतः प्रभु के समीप न जाकर वह एकाकी जंगल में ही तप करते रहे। निराहारी शीतोष्ण सहिष्णु, सर्वोन्मुख दशा में एक वर्ष तक खड़े खड़े तप करते रहे परन्तु फिर भी मान का त्याग न हुवा । प्रभु की आज्ञा से उनकी बहिनें आकर जब उन्हें जागृत करती हैं किवीरा मारा गज थकी उतरो, गज चढयां ज्ञान न होय रे ।
बस उनका मान नष्ट होता है । जो वस्तु एक वर्ष तक खड़े रहकर तप करने से न मिली वह अलभ्य वस्तु “केवल ज्ञान" मान के नष्ट होते ही एक क्षण में प्राप्त हो गई। वास्तव में मान के त्याग में अमोघ शक्ति है।
मान त्याग, अपमान सहन सभ्यग्विचार्येति विहाय मानं, रक्षन् दुरापाणि तपांसि यत्नात् । मुदा मनीषी सहतेऽभिभूतीः, शूरः क्षमायामपि नीचजाताः॥८॥