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________________ ११४ अध्यात्म-कल्पद्रुम कैदखाने में से अभी भी तू निकल जा । यह शरीररूपी जेलर जरा लोभी है अतः तू उसे थोड़ा थोड़ा भोजन दिया कर एवं मोक्ष का साधन भी उसके ही द्वारा तैयार कर और पांचों इन्द्रियों पर संयम रख, एवं पांच प्रमाद रूपी शराब का कभी सेवन न कर, यह युक्ति करना (जिससे तू शरीररूपी कैद से छूट जाएगा)। ____ मुनिसुन्दरसूरिजी महाराजा के इस उपदेश पर अभी वह जीव विचार कर रहा है। उपदेश के अनुसार चलने की उसे अत्यंत आवश्यकता है। मधुबिंदु का दृष्टान्त भी इसी तरह का है। शरीर की अशुचि, स्वहित ग्रहण यतः शुचीन्यप्यशुचीभवन्ति, कृम्याकुलात्काकशुनादिभक्ष्यात् । द्राग्भाविनो भस्मतया ततोऽगात्मांसादिपिंडात् स्वहितं गृहाण ।६। अर्थ-जिस शरीर के संबंध से पवित्र वस्तुएं भी अपवित्र हो जाती हैं, जो कृमि (कीटाणु) से भरा हुवा है, जो कव्वे व कुत्तों के भक्षण के योग्य है, जो थोड़े समय में राख हो जाने वाला है और जो मांस का ही पिंड है उस शरीर से तू तो अपना हितकर ॥ ६॥ . उपजाति विवेचन—इस शरीर को केसर कस्तूरी मिश्रित दूध पिलाओ तो मूत्र बन जाता है, सुगंधित मेवायुक्त पकवान खिलानो तो विष्टा बन जाता है, सुन्दर कोमती वस्त्र पहनायो तो वे पसीने से दुर्गन्ध वाले बन जाते हैं, इसके संपर्क में आने
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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