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अथ चतुर्थो धनममत्व
मोचनाधिकारः
इस प्राणी को संसार में घुमाने वाला यदि कोई है तो वह मोह ही है । अनेक प्रकार के मोह में से धन, और स्त्री पुत्र का मोह विशेष कष्टकर है। स्त्री और पुत्र पुत्री संबंधी मोह के पश्चात उनके समान या उनसे भी अधिक प्रबल और अधिक भवभ्रमणकारक जो धन का मोह है वह कैसा है, किसको होता है, कैसे होता है, उसका प्रतिकार क्या है, आदि स्वरूप इस चौथे अध्याय में बताया है ।
धन पाप का हेतु है याः सुखोपकृतिकृत्वधिया त्वं, मेलयनसि रमा ममताभाक् । पाप्मनोऽधिकरणत्वत एता, हेतवो ददति संसृतिपातम् ।।१।।
अर्थ लक्ष्मी के लोभ में फंसा हुवा तू (स्व) सुख और उपकार की बुद्धि से जो लक्ष्मी प्राप्त कर रहा है वह अधिकरण होने से पाप की ही हेतु भूत है और संसार-भ्रमण को देने वाली है ॥ १॥
स्वगतावृत्त विवेचन यद्यपि लक्ष्मी प्राप्त करने में हमारी बुद्धि या भावना उपकार करने की नहीं होती है एवं दान देने के लिए भी कमाई नहीं की जाती है, परन्तु फिर भी शास्त्रकार