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________________ ८० अध्यात्म-कल्पद्रुम कपिल विद्यार्थी हलुकर्मी होने से कपिल केवली बनता है । इसी तरह नट कन्या के लिए १२ वर्ष लक विविध नाटक करता हुवा इलाचीकुमार अपने माता, पिता, परिवार और धन संपति को छोड़ता है, पश्चात रस्सी पर चौथी बार नाचता हुवा एक त्यागी मुनि को किसी सुन्दर स्त्री के सामने एकांतस्थल में, युवावस्था होते हुए भी निर्विकारी देखता है । वह . सोचता है कि "मुझको धिक्कार है; जिस नट कन्या के लिए मैं इतना प्रयत्न कर रहा हूं उसे राजा अंतपुर में रखना चाहता है, उधर वह मुनि धन्य है जो स्त्री के मोह में नहीं फंसा है । इस तरह विचारते हुए नाटक करते हुए वह संसार नाटक का अंत लाता है, अर्थात वहीं पर केवली बनकर आयुष्य क्षय होने से मोक्षगामी होता है। इन दोनों दृष्टांतों से स्पष्ट हो गया कि, स्त्री से ही घर है और जब घर है तो सब कुछ अवश्यंभावी ही है । यह गृहणी न होकर ग्रहणी हैं अर्थात जैसे चंद्र को राहु का व सूर्य को केतु का ग्रहण लगता है वैसे ही पुरुष को स्त्री का, ग्रहण लगता है। अतः इस बंधन स्वरूप सर्व संतापों की कारणभूत स्त्री में से आसक्ति हटा लो। स्त्री के शरीर में क्या है ? यह विचारो अंगेषु येषु परिमुह्यसि कामिनीनां, चेतः प्रसीद विश च क्षणमंतरेषां । सम्यक् समीक्ष्य विरमाशुचिपिंडकेभ्य स्तेभ्यश्च शुच्यशुचिवस्तुविचारमिच्छत् ॥५॥ अर्थ हे चित्त ! जिन स्त्रियों के अंगों पर तू मोहित होता
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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