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सुधराने की भावना से मैं अहमदाबाद गया। प्राचार्य श्री महेन्द्रसूरिजी महाराज साहब ने इसको बड़ी खुशी से देखा व इस पर अपनीसम्मति लिखदी। पश्चात् आगम प्रभाकर श्रीपुण्यविजयजी महाराज साहब ने भी आशीर्वाद लिखा। इतना होचुकने के पश्चात इसके प्रकाशन की व्यवस्था के लिए में मारवाड़ की तरफ आया। सद्भाग्य से आयंबिल व पूजा करने की भावना से चैत्री पूनम को तखतगढ़ उतरा वहां श्री रूपविजयजो व भानुविजयजी महाराज के दर्शन हुए और उनके उपदेश से संघवी सांकलचन्दजी भाई ने रु० १०१) से शुरुआत की पीछे तो सिलसिला शुरू हुआ बाद में परमोपकारी गुरुदेव श्रीमहेन्द्रसूरिजी का पत्र लेकर में मद्रास गया वहां श्री ऋषभदासजी (स्वामीजी) के सहयोग से ग्राहक बनाता हुआ बैंगलोर, मैसूर, रायचूर आदि गया इन सबका आभार अलग लिख कर मानूंगा । ___ सुज्ञ बन्धुप्रो ! मेरा यह प्रयास केवल भावना के वशीभूत होकर ही हुआ है । न तो मैं विद्वान हूँ, न अध्यात्मज्ञान ही मुझ में है न वैराग्य की भावना ही है, भाषा ज्ञान भी साधारण है परन्तु जैसे वसंत ऋतु से कोयल को प्रेरणा मिलती है और वह जहां तहां आम के वृक्ष पर बैठकर पंचमराग में टुहुक-टुहुक करती है वैसे ही इसी ग्रन्थ ने स्वयं ने ही मुझे यह प्रेरणा प्रदान की और यह भगीरथ कार्य सम्पन्न हुवा है।
विवेचन करते हुए पहले मैंने श्रीमोतीचन्द भाई के गुजराती के विस्तृत विवेचन को पढ़ा है, पश्चात उसकी महत्वपूर्ण वस्तुओं को न छोड़ते हुए संक्षेप से अपने शब्दों में अपनी विचार धारा