SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतपदी भाषांतर. (१६५) (जिनकल्पिनी क्रिया.) जिनकल्पिनी क्रिया आ प्रमाणे छे. (१) जिनकल्पि एकलाज रहे. (२) मसाणमां पण जई काउसग करे. (३) नवकल्पेज विचरे. (४) आंखमां पडेल तणखलं वगेरा पण नहि कहाडे. (६) पगमां लागेल कांटुं वगेरा पण नहि कहाडे. (६) शरीरे खरज न करे. . (७) त्रीजे पहोरेज आहार नीहार तथा विहार करे. (८) बीजा कोई साधुओ साथे पण आलापसंलाप नहि करे. ९) लेप न लागे एवो तुच्छनीरसज आहार करे. (१०) ज्यां त्रीजो प्रहर पूरो थयो के साते पहोर सांज ऊभा रहे. (११) कूतरा, बळद, हाथी, सिंह के चित्राथी नाशे नहि. (१२) मांदा पडतां पण चिकित्सा न करावे. (१३) ध्रुवलोच करे.. (१४) निःप्रतिबंध होवाथी कोइने धर्मोपदेश पण न करे. (१५) सूत्रना बळथीज सर्व कलाओ जाणे. (१६) छ मास लगी आहार नहि मळे तोपण नहि शीदाय. (१७) समुद्र माफक क्षोभ नहि पामे. (१८) सूर्य माफक तेजस्वी होय. (१९) जघन्यथी पण नवमापूर्वनी आचारनामे त्रीजी वस्तु सूत्रार्थे . शीखेला अने उत्कृष्टा दशपूर्वथी कंइक जणुं शीखेला होय. (२० वज्रऋषभनाराच संघेणवाळा होय. ए जिनकल्पिओमा केटलाक एवा होय छे के जेमना हाथमा हजार घडा पाणी रोडिए तोए माई जाय छे तथा कई घा लागे
SR No.022231
Book TitleShatpadi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasinhsuri
PublisherRavji Devraj Shravak
Publication Year1895
Total Pages248
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy