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________________ ( ४७ ) गुणाश्रित शुभ पर्यायों का गर्व है। विपुल वैभव, अनुकूल जन, यश आदि के संयोग में गर्व–इष्ट संयोग में गर्व है और उद्दण्डता से युक्त तथा विनम्रता से रहित व्यवहार करना स्तब्धत्व है । ५. अपने उच्चत्व, श्रेष्ठत्व, गुण आदि का बोध, उनमें प्रसन्नता आदि मान नहीं है, किन्तु ज्ञानशुद्धि, चरित्रशुद्धि आदि हैं । ६. उच्चत्व आदि के भाव के साथ अन्य को हीन आदि समझने के भाव के जड़ने पर जो नशे से उन्मत्त-सी दशा हो जाती है, वही मान है। जैसे-'मैं ही बड़ा हूँ' 'मैं ही श्रेष्ठ हूँ' 'मैं ही गुणी हूँ आदि में जो 'मैं ही' का आग्रह है वही मान का रूप है। क्योंकि इनमें दूसरों के प्रति तुच्छता का भाव जुड़ा हुआ है और दूसरे भी मेरे सदृश या मुझसे विशिष्ट हो सकते हैं—यह बोध विलुप्त हो गया है। ७. अप्पगुणम्मि के दो अर्थआत्म गुण और अल्प मुण । दोनों अर्थों का आश्य सदृश ही हैं अर्थात् अपने को प्राप्त थोड़े से गुणों को भी अधिक मानना—पूर्ण मानना तथा किसी के अधिक और विशेष गण को भी अंश मात्र मानना या मानना ही नहीं-मान का ही कार्य है। ८. पर-वस्तु अर्थात् पौद्गलिक पदार्थ, सुन्दर-सुदृढ़ शरीर, धन-जन- पश् आदि । इनके संयोग में अपना गौरव मानना और ज्ञानादि गुणों, धर्म, नीति आदि को तुच्छ मानना-इनको महत्त्व नहीं देनायह भी मान कषाय का कार्य है। ९. मानकषाय कर्म सत्ता से चलायमान होकर आत्मप्रदेशों में व्याप्त हो जाता है । तब छाती फुलाकर चलना आदि अकड़ भरे कार्य होते हैं । यही मान की क्रिया है। मान की अनुक्रियाएँ विसिट्ठियाइ उम्माओ, तहा अभावओ दुहे। सम्भावओ सुहे मुच्छा, रूवा माणस्स दो विहु ॥१६॥ (अपनी) विशिष्टता का उन्माद और (विशिष्ट पदार्थों के) अभाव से (उत्पन्न) दुःख में और (अनकल पदार्थों के) सद्भाव से (उत्पन्न) सुख में मूर्छा-बेभान दशा होना-ये दोनों ही सचमुच में मान के ही रूप हैंमान की ही अनुक्रियाएँ हैं ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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