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________________ ( ३० ) टिप्पण-१. अनन्तानुबन्धी क्रोध का रस अनन्तानुबन्धी रूप, अप्रत्याख्यानसदृश, प्रत्याख्यानावरणसदृश और संज्वलनसदृश ऐसे चार प्रकार का हो सकता है। इसप्रकार शेष पन्दरह कषायों के चार-चार प्रकार हो जाते हैं। यों रस की अपेक्षा से कषाय के चौंसठ भेद होते हैं। २. अनन्तानुबन्धी आदि कषायों में तीव्रता और मंदता बुद्धिगम्य हैं । क्योंकि अनन्तानबन्धी क्रोध के उदयवाले भी अति क्षमावान और संज्वलन क्रोध के उदयवाले तीव्र रोषाविष्ट और असहिष्णु रूप में अनुभव में आ सकते हैं । क्वचित् संज्वलन चतुष्क का समय लम्बा और अनन्तानुबन्धी का समय अल्प हो सकता है। ३. मन से संबोधन इसलिये किया गया कि कषाय अन्तरंग परिणाम रूप है-ये भेद भी इन्द्रिय-गम्य नहीं हैं, चिन्तन-गम्य हैं। मन का विषय भी श्रुतज्ञान है। और इनका स्वरूप भी सम्यक् श्रुत के अध्ययनमनन से ही जाना जा सकता है। अतः अपने भीतर उनकी अवस्थाओं को मन के द्वारा ही पकड़ा और जाँचा-परखा जा सकता है। पुनः मन सावधान हो जाये और अति सावधानी, सूक्ष्मता और तीक्ष्णता से आत्म-परिणामों को परखे-यह हेतु है-उसके संबोधन में। अगली गाथाओं में मन को सावधान होने का उपदेश दिया है भव-मूलो कसाओ उ, णाणाविहो विमोहगो । इंदजालोवमं किच्चा, जीविदं मोहए परं ॥२१॥ कषाय भव का मूल है। किन्तु (यह) विविध रूप से विमोहक= संमोहन करनेवाला है। इसलिये (यह) इन्द्रजाल के समान (माया) बनाकर जीवरूपी इन्द्र को अत्यन्त मोहित करता है। टिप्पण--१. इस गाथा में कुछ सूचनाएँ दी गयी हैं, जिससे मन यह जान ले कि कषायों को परखना सरल नहीं है। २. 'कषाय संसार-वृद्धि का हेतु है'-यह सैद्धान्तिक बात है, अनुभव की नहीं। इसे भलीभाँति समझने के लिये आगम का ही अवलम्बन लेना होगा और इस विषय में
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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