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________________ ( २८ ) का व्यापार पूर्णतः नहीं हट पाता है और मोक्ष में उन्हें जोड़ नहीं पाता है। यों अपने आप से ही लुका-छिपी और वक्रता चलती रहती है। ५. धर्मप्रसंग होने पर धन आदि का व्यय उत्साह से करता है। परन्तु भोगेच्छा बनी रहती है। क्योंकि प्रत्याख्यानावरण का लोभ विद्यमान होता रहता है। ६. जिस समय में चार में से जिस प्रकृति का उदय रहता है, उस समय उस प्रकृति का कार्य प्रधान रूप से अनुभव में आता है । ७. इस चतुष्क के फल-स्वरूप अन्तिम समय में श्रावकों के द्वारा मारणान्तिक, संलेखना के समय सावद्ययोग के तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान कर लेने पर भी सर्वविरति रूप परिणाम प्रकट नहीं होते हैं। किंचि अरइमइयारं-चरइ, पमायं करेइ, अप्पम्मितल्लोणयं च खंडइ, फलं चउत्थस्स चोक्कस्स ॥१९॥ चतुर्थ (संज्वलन-) चतुष्क का फल (यह है कि) (संयम में) किञ्चित् अरति होती है । अतिचार का आचरण होता है । प्रमाद को (उत्पन्न) करता है और आत्मा में (जमती हुई) तल्लीनता को खण्डित करता है। ___टिप्पण-१. चतुर्थ संज्वलन चतुष्क अति मंद कषाय है। फिर भी उसका जातीय प्रभाव तो होता ही है। २. संज्वलन का क्रोध जोर पकड़ता है तो संयम में किंचित् अरुचि-उकताहट पैदा हो जाती है । संयम में प्रीति है। सर्वविरति के परिणाम भी तद्रूप विकृति के अभाव में उत्पन्न हो जाते हैं। किन्तु साधक जरा-सा असावधान हो जाता है तो यह कर्म प्रकृति अपना प्रभाव दिखा ही देती है। यद्यपि संयम में अरति तो अरति मोह के उदय से होती है, फिर भी संज्वलन का क्रोध संयम में अप्रीति उत्पन्न कर सकता है। अतः उससे अरतिमोह का उदय भी हो सकता है और कुछ तीन भी हो जाययह संभव है। ३. मान की तीन प्रकृतियों के अभाव से विशेष आत्मबल उत्पन्न हो जाता है। किन्तु संज्वलन के मान से आत्मबल आत्माभिमान में परिवर्तित हो सकता है । अतः मानवश (या चारों कषाय के वश) अतिचारों
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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