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________________ ' ( ३१५ ) और आत्मा में जिनत्व के दर्शन से कषायों के क्षय करने में दृष्टि बराबर जमती है। ५. स्वच्छन्दता का निरोध कषाय-क्षय में प्रधान हेतु है और वह होता है-गुरुदेव के चरणशरण और जिन-आज्ञा के वहन से। चूलिया जिच्चा सव्वकसाए, णिय-चेयण्णेपइट्ठिया पहुणो ! . :: तुम्हाण समक्खं हं, कसायंधिगलो कहेमि कहं ॥७॥ सभी कषायों को जीतकर निज चैतन्य में प्रतिष्ठित हे प्रभुओ ! कषायों से विकल बना हुआ मैं आपके समक्ष (आत्म-) कथा कहता हूँ। टिप्पण-१. अपनी हीनता की कहानी हीन के समक्ष कहने में कोई लाभ नहीं । उच्च समर्थ व्यक्ति के समक्ष कहने से न तो उपहास का भय रहता है और न असहायता का । २. एक भी समर्थ और श्रेष्ठ व्यक्ति के सामने दुखड़ा कहने से उस दुःख के दूर होने में देर नहीं लगती । ३. आप शुद्ध चैतन्य के स्वामी अनन्त प्रभु हैं । अतः मैं सभी प्रभुओं को संबोधन कर रहा हूँ। ४. आप सर्वज्ञ हैं-सर्वदृष्टा हैं । आपसे मेरे दुःख छिपे हुए नहीं हैं । किन्तु आपके समक्ष मेरे दु:खों का कथन मेरे हित के लिये है। ५. मेरे दुःख को जानकर भी आप द्रवित नहीं होते हैं तो सुनकर भी द्रवित नहीं होंगे यह मैं जानता हूँ और मैं स्वयं भी आपको द्रवित करना नहीं चाहता हूँ। ६. एक जानकार के सामने भी अपनी कर्मकथा कहने में लज्जा का अनुभव करता है, मानव । परन्तु आप अनन्त प्रभुओं के समक्ष निर्लज्ज बनकर कर्मकथा कहने के लिये तत्पर हुआ हूँ। इसका भी कारण है, क्योंकि उनसे छुटकारा पाने के लिये एक उपाय है--आपके समक्ष उनका निवेदन । अव्वत्त-कसाएणं अणाइ-सहय-मल-लित्त-चेयण्णो । सुत्तो भव-जलहीए, णिगोय-मज्झे तुया दिट्ठो ॥७॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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