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________________ ( ३०६ ) वाला ही सच्चा साधक है। २. ऐसी श्रद्धावाला ही उल्लासपूर्वक यतिधर्म की आराधना करता है। ३. उसे अपनी असमर्थता=दौर्बल्यअल्प सत्त्व और प्रमाद सुहाता नहीं है-इतना ही नहीं, किन्तु वे तीक्ष्ण काँटे से भी अधिक उसके हृदय को पीड़ित करते हैं। ४: जिनोपदिष्ट समग्र धर्म में श्रद्धा, उसे संपूर्ण रूप से करने के भाव और अपने दौर्बल्य-प्रमाद का खेद-आत्मनिन्दा की भूमिका तैयार करते हैं। कसाय - वेय - हासाई, लग्गति धम्म-बाहगा । पासइ उदए तेसि, अत्तभाव - विराहणं ॥६२॥ (आलोचना से) कषाय, वेद और हास्यादि षट्क धर्म में बाधक प्रतीत होते हैं और (साधक) उनके उदय में आत्मभाव की विराधना देखता है। टिप्पण--१. साधक को किञ्चित् भी स्वाध्यायादि से विरत हुआ नहीं कि (और कभी-कभी स्वाध्याय-ध्यानादि में भी) कषायों और नोकषायों का वेदन होता है अर्थात् वे निःषेश नहीं होते हैं। २. यह किञ्चिन्मात्र भी कषाय आदि का उदय साधक को धर्म में बाधा उत्पन्न करनेवाला प्रतीत होता है। वस्तुतः यहीं अपनी असमर्थता पर खीझ पैदा होती है कि धर्म-आराधना करते हुए भी ये नष्ट नहीं हुए और धर्म में विघ्न पैदा करते हैं। ३. वे ईषत् कषाय (संज्वलन), मंद वेदोदय आदि भी अनात्मभाव हैं। उनके उदय-प्रवाह में बहने से आत्मभाव की विराधना होती है। ४. साधक के अल्प वीर्य और प्रमाद के कारण ही वे साधक पर हावी होते हैं । अतः उसे अति खेद होता है । आत्मनिंदा का उत्थान सो संजलेइ चित्तम्मि, –'केरिसं मम वीरियं ? केरिसो उज्जमो हा ! हा ! दोसो नज्जावि मुच्चए' ॥६३॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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