________________
( २९८ ) भावों का यथावत् रूप में जमे रहना । सया=निरीक्षण निरन्तर चलते रहना । चर्यादि में शुद्धभावों की वृद्धि को और अवस्थिति पर उपयोग लगाये रहना, जिससे भाव निम्नगामी न बनें। ४. यह कार्य होता हैआत्मदृष्टि से। अपने आपको स्वयं देखते रहने से साधना का क्रम बराबर चल सकता है।
इस भाव-आरोहण के विषय में विशेष स्पष्टीकरण
भित्ति व गिरिमारोहुँ, ठाउठाणाइ अंतरा। अवेक्खियाइ ण च्चेअ, समभट्ठोऽवसप्पइ ॥५०॥ एमेव पडिचाउक्के, खए निष्फज्जए गुणो। जमवलंबिऊणं तु, ठिओ गंतुज्जमं करे ॥५१॥
जैसे (अति ऊँचे) दीवाल के सदृश (सीधी चढ़ाईवाले) पर्वत पर आरोहण करने के लिये बीच-बीच में टिकने के लिये स्थान चाहिये, नहीं तो सम=सीधी चढ़ाई से भ्रष्ट होकर (आरोही) नीचे फिसल जाता है।
वैसे ही कषाय के प्रत्येक चतुष्क के क्षय होने पर (ठाउठाण=स्थित रहने के स्थान के समान) गुण निष्पन्न होता है जिसका अवलम्बन लेकर (गुण में) स्थित होता हुआ (बुध) (कषायक्षय के मार्ग में) आगे जाने का उद्यम करे ।
सम्मत्तं सावयत्तं च, मोणं ठाउथलं विव । कसायाणं खयं होइ, उजुमारोहणं समं ॥५२॥
(प्रत्येक चतुष्क के क्षयादि से निष्पन्न) सम्यक्त्व, श्रावकत्व और मौन= साधुत्व (रूप गुण) स्थातुस्थान=भावों के टिकाने के लिये आधार-स्थान