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________________ ( २८७ ) ही प्रशम, संवेग, निर्वेद और अनुकम्पा सम्यक् भाव को प्राप्त होकर यथार्थरूप से सम्यक्त्व के लक्षण के रूप में परिणत होते हैं । ४. श्रद्धा ही प्रवृत्ति का हेतु है। जैसी श्रद्धा होती है, वैसी प्रवृत्ति होती है । यदि श्रद्धा शुद्ध होती है तो प्रवृत्ति भी शुद्ध होती है। श्रद्धा से क्रियाबल की वृद्धि होती है । ५. अविरत सम्यक् दृष्टि कुछ त्याग नहीं कर पाता है और देशविरत अंशमात्र ही आरंभ का त्याग कर सकता है। परन्तु सर्वविरति रूप धर्म में उनकी श्रद्धा दृढ़ होती है । वे संपूर्ण रूप से आरंभ के त्याग करने के लिये लालायित रहते हैं । वे धर्म की श्रद्धा को पुष्ट करते हुए बढ़ाते रहते हैं । ६. वे साधक 'तमेव सच्चं...'चतुर्विशतिस्तव आदि और मनोरथों के चिन्तन से धर्मश्रद्धा को और त्यागभावना को बढ़ाते रहते हैं । ७. धर्मश्रद्धा की तीव्रता से और त्यागभावना की दृढ़ता से आत्मबल विकसित होने लगता है। धर्मश्रद्धा की आवश्यकता तिव्यो जहा य संवेगो, धम्मसद्धा तहा परा । ताए सव्वगुणा एंति, सस्सं व वरिसाइ य ॥३३॥ और जैसे-जैसे संवेग तीव्र होता है, वैसे-वैसे धर्मश्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। उस (धर्मश्रद्धा) से (ही) सभी गुण आते हैं । जैसे वर्षा से ही शस्य निष्पन्न होता है। टिप्पण-१. मोक्ष की इच्छा होने पर उसके उपायों की खोज होती है। यही संवेग से धर्म की खोज है। मोक्ष के असंदिग्ध उपाय पाकर उनमें दृढ़तम विश्वास उत्पन्न हो जाता है। यही धर्मश्रद्धा है। २. संवेग से धर्मश्रद्धा होती है और उससे संवेग तीव्र होता है। तीव्र संवेग से श्रद्धा को मलिन बनानेवाले कारण समाप्त होते जाते हैं । अतः धर्मश्रद्धा भी तीव्रतम होती जाती है। ३. तीव्र श्रद्धा से मोक्ष-प्राप्ति के योग्य समस्त गुणों का आविर्भाव होने लगता है । इसके लिये वर्षा से अन्न निष्पन्न होने का उदाहरण दिया है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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