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________________ ( १२ ) से सुख-दुःख का अनुभव होता है । मोहनीय कर्म के उदय से जीव विकारों का अनुभव करता है और आयुष्य कर्म के उदय से जीवन का अनुभव करता है । तीसरे दल के दो कर्म जीव के पौद्गलिक-व्यवहार में प्रायः हेतु रूप बनते हैं । नाम कर्म के उदय से गति, जाति, तद्योग्य शरीर, यश- अपयश, सुरूप- कुरूपता आदि प्राप्ति होती है और गोत्र कर्म के उदय से पूजनीयता - अपूजनीयता की स्थिति बनती है । चौथे दल में मात्र अन्तराय कर्म ही है । यह ऐसा कर्म है कि जो सभी कर्मों में अंश रूप से व्याप्त हो सकता है । क्योंकि इसके उदय से दान आदि पाँच लब्धियों की घात होती है । उनमें 'वीर्य' पाँचवीं लब्धि है । वीर्य की तरतमता कर्मों की अल्पाधिकता में हेतु रूप बनती है । सामान्य रूप से सभी कर्म अन्तराय रूप में ही हैं । ज्ञान, दर्शन, अव्याबाध सुख, सम्यक्त्व, अमरत्व, अमूर्तत्व और अगुरुलघुत्व के बाधक क्रमशः सात कर्म हैं ही । अतः अन्तराय कर्म क्षय होने के पहले सर्व कर्मव्यापी - सा है । उत्तर प्रकृतियाँ - पंच- णव-दु-छब्बीस-चउ-सट्टि - भेओ । दु-पंच इइ एएस, उत्तराणं च बंधओ ॥१२॥ और इन (आठ कर्म प्रकृति) का क्रमशः पाँच, नव, दो छब्बीस, चार, सड़सठ, दो और पाँच भेद से उत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । टिप्पण - १. इस गाथा में आठ कर्मों के प्रभेदों का क्रमशः उल्लेख किया हैं । ज्ञानावरणीय कर्म पाँच प्रकार का है यथा श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्याय मतिज्ञानावरण, ज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । दर्शनावरणीय कर्म के नव भेद । यथा -
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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