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________________ ( २६८ ) कषाय की तीव्रता और मंदता से नाश को सुनकर, जानकर उस (अपने कषाय) से राग का और (दूसरे के कषाय से) द्वेष का निवारण करनाशम (या प्रशम) लक्षित होता है। टिप्पण--१. कषाय मात्र आत्मगुण का घातक है-चाहे वह अल्प हो या अधिक । २. कषाय की तीव्रता से चरित्रादि गुण की घात होती है। ३. मंदकषाय से पुण्य-बंध होता है। जिससे जीव पुण्य के फलों में आसक्त होकर पापार्जन ही करता है। पाप तो गुणों का घातक ही होता है। ४. श्रवण गुरु से और अनुभवियों से होता है। जानकारी सुनने से, चिन्तन से और अनुभव से होती है। ५. अपने कषायों में जीवों को राग और ममत्व होता है। अतः उनमें दोष प्रतीत नहीं होता है। परायों के कषायों में दोष प्रतीत होता है। अतः उनके कषायों में द्वेष, अरूचि, आक्रोश आदि उत्पन्न होता है। ६. अपने कषाय से राग का और पर के कषाय से द्वेष का निवारण प्राथमिक रूप से शम है। ७. लक्खिओ शब्द से यह सूचित किया है कि यह आशय अपने चिन्तन में लक्ष्य में आया है। अन्यमत और उसका निषेध वेयणे य कसायस्स, राग - दोसाण हायणं । केणवि जो समो वुत्तो, एसो जुसो न लग्गइ ॥९॥ किसी के भी द्वारा कषाय के वेदन में राग-द्वेष का ह्रास या अभाव जो सम कहा है-वह युक्त नहीं है। टिप्पण--१. कषाय के वेदन में क्रोध, मान आदि भाव ही बनते हैं। २. उन भावों को उदय में आने पर भोगना ही पड़ता है। क्योंकि कृतकर्म को भोगना ही पड़ता है-भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं हो सकता । इसलिये उन भावों में राग-द्वेष न करते हुए, उन्हें भोग लेना चाहिये-ऐसा
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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