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________________ ( २६२ ) टिप्पण--१. आत्मा के साथ कर्मों का दूध में पानी के समान मिल जाना-बंध है। आत्मा में कर्म का प्रवेश मिथ्यात्व आदि हेतुओं से होता है। २. चिरा शब्द का यहाँ 'अनादि से'--यह अर्थ ग्रहण करना चाहिये । कर्म जीव के साथ अनादिकाल से लगे हुए हैं। जीव पहले कभी भी कर्म से रहित नहीं था। ३. जीव के निरन्तर प्रति समय कर्म का बंध और कर्म का भोग चलता रहता है। पुराने कर्मोंका भोग होता है और नये कर्मों का बन्ध । ४. बन्धे हुए कर्म स्थिति पूर्ण होने पर उदय में आते हैं और फल देकर खिर जाते हैं । इसप्रकार कर्मों का खिर जाना भी अंशत: क्षय है। किन्तु उसके साथ पुनः बन्ध जुड़ा हुआ है और उसकी जाति के कर्म सत्ता में भी जमें रहते हैं । ५. सत्ता में रहे हुए कर्मों को विरस करके आत्मप्रदेशों से खिरा देना क्षय है। फिर तज्जातीय कर्म सत्ता में नहीं रहते। ६. इसप्रकार कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष हो सकता है अन्यथा नहीं। ७. जीव के अध्यवसाय विशेष से कर्मों की तीन स्थितियाँ बनती हैं-क्षय, उपशम और क्षयोपशम । प्रदेशोदय, विपाकोदय और सत्ता-तीनों का अभाव कर देना क्षय है। प्रदेशोदय और विपाकोदय का अभाव कर देना उपशम है और मात्र विपाकोदय को रोक देना अथवा उदय में आये हुए कर्मों को क्षय कर देना, सत्ता में रहे हुए कर्मों को दबा देना-उपशमा देना और प्रदेशोदय चलते रहना क्षयोपशम है । कषायों की तीनों प्रकार की स्थितियाँ हो सकती हैं । ८. उपशम लम्बे समय तक नहीं चल सकता है । अन्तमुहूर्त बाद ही कर्मों का उदय पुनः प्रारंभ हो जाता है । क्षयोपशम लम्बे समय तक रह सकता है । किन्तु सदा के लिये नहीं रह सकता । क्षय का आशय ही यह है कि कर्म का सदा के लिये नाश । ९. कषायों का क्षयवत् क्षय भी होता है। उसे विसंयोजना कहते हैं । परन्तु विसंयोजित कर्मों का बन्ध पुनः प्रारंभ हो सकता है। १०. कषायों के कृशीकरण और वशीकरण में उपशम, क्षयोपशम और विसंयोजना होती है । ११. सदा के लिये कषायों का नाश ही कषायों का क्षय है। इस प्रकरण में उसी से प्रयोजन है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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