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________________ ( २६० ) अपनी स्मृति में भली-भाँति जमा लें। २. उपायों को जान लेने मात्र से साधना पूर्ण नहीं हो जाती । किन्तु उनका चित्त लगाकर अभ्यास करना चाहिये । तथारूप उपायों का पुनरपि पुनः अभ्यास ही साधना की कुंजी है। जो साधक के मोक्षमार्ग के तालों को खोलती है अर्थात् अभ्यास साधना में आनेवाले अवरोधों को दूर हटाता है। ३. कषाय जितना-जितना मंद होकर वश में होता है, उतना-उतना प्रशम भाव का आविर्भाव होता है और गहराता जाता है। ४. गुण के दो भेद सर्व और देश । इनके प्रत्येक के दोदो भेद मूल और उत्तर । सर्वमूलगुण अर्थात् पाँच महाव्रत । सर्व उत्तरगुण अर्थात् विविध प्रत्याख्यान । देशमूलगुण अर्थात् पाँच अणुव्रत । देशउत्तर गुण अर्थात् चारगुणव्रत और चारशिक्षाव्रत । ५. कषाय को वश में करने में क्रमशः सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति प्राप्त होती है। इन्हें पाकर जीव कर्मक्षय के लिये प्रवृत्त होता है। ६. सर्वविरत मुनि ही कर्मक्षय के मार्ग पर तीव्र गति से चलते हैं । अतः गाथा में मुनि शब्द का प्रयोग किया है। यदि सामान्य साधक भी कर्मक्षय के मार्ग पर तीव्र गति से बढ़ता है तो वह भी मुनित्व को प्राप्त कर लेता है । ७. जिसके कर्मक्षय होते हैं, वह जल्दी मोक्ष प्राप्त करता है । जीवा बहुवचन है मुणी एकवचन अर्थात् अनेक साधकों में कोई एक जल्दी सफल होता है। * सुक्ति-सुधा * (प्रवर्तक श्री उमेशमुनिजी म. 'अणु' ) १. दीर्घ समय तक साधना करने पर कठिन से कठिन कार्य भी साधा जा सकता है। २. जिनशासन का अनुराग आत्मज्योति को प्रज्वलित करता है। ३. जिन-आज्ञा से संयमरूपी दीपक का निर्माण होता है । संयम-दीपक में ज्ञान-आराधना की अखण्ड ज्योति जलती है। संयम-दीपक में श्रद्धा और पुरुषार्थ का तैल चाहिये ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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