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________________ ( २५६ ) मेरी साधकता नहीं रह सकती है ।' साधकदशा का भान ही उसे विकारों में बहने से रोक सकता है । क्योंकि उदयावलिकाओं में प्रविष्ट कर्मों को क्षण भर में भोग लेता है और वह फिर साधक दशा के भान से कर्मों को उदयावलिका में प्रविष्ट होने से रोक देता है अर्थात् उसका उदय निरोध प्रारंभ हो जाता है । ५. ज्ञान के बल से कषायों के उदय से खेद होता है । फिर साधना में धैर्य और स्थैर्य अपेक्षित रहता है । खेद, धैर्य और स्थैर्य कषाय- प्रवाह में लम्बे समय तक नहीं बहने देते हैं । खिन्नादि पदों से यही सूचना दी है । अप्रमत्त बनो - बले भग्गम्मि णाणी मा, सोइज्ज मा समं चए । उदित्थि फलं तम्हा, अप्पमत्तो परिव्वए ॥ ६२॥ ज्ञानी ( कषायों के द्वारा ) बल भग्न कर देने पर भी शोक नहीं करें और श्रम नहीं छोड़ें । क्योंकि ( कषायों के ) उदय होने पर ( उनका ) फल होता ( ही ) है इसलिये अप्रमत्त ( होकर ) ( साधनामार्ग में) विचरण करें । टिप्पण - १. कषाय आन्तरिक बल को तोड़ देते हैं । अतः एकदम निराशा छा जाती है । अतः मन शोक संतप्त हो उठता है । २. शोक दो प्रकार का -निराशा रूप और पश्चाताप रूप । निराशा रूप शोक परित्याज्य है । क्योंकि वह साधना की इतिश्री कर देता है । ३. साधना का श्रम अपरित्याज्य है । क्योंकि साधना का श्रम सम्यक् पुरुषार्थ है । उसे छोड़ देना अर्थात् कषायों से हार जाना है और हमें उनसे हार स्वीकार करना नहीं है । ४. साधना के बल से कषाय का वेग तीव्र होता है तो वे साधना के बल को तोड़ देते हैं । कभी साधना बलवती होती है तो कभी कषायवृत्ति । साधना बलवती होती है, तो कषायों का जोर नहीं चलता । अतः जहाँतक वे निःशेष नहीं हो,
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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