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________________ ( २४९ ) “(गुरुदेव) मुझको परम योग्य मानते हैं । इसलिए मुझे ही (आज्ञा से) शासित करते हैं । यह (मेरा) परम सौभाग्य है । इसकारण मैं हर्षित क्यों न होऊँ ?' । 'गिम्हे सच्छंदया-रूवे, हिंडेमि पीलिए भवे । आयवत्तेण तावत्तो, किवालू मम रक्खइ' ॥५४॥ 'स्वच्छन्दता रूप ग्रीष्म ऋतु में पीड़ित भव में (मैं) घूम रहा हूँ। (इसलिये) कृपालू (गुरुदेव) (आज्ञा रूपी) आतपत्र (=छत्र) से मेरी (सन्ताप रूपी) ताप से रक्षा करते हैं।' टिप्पण-१. गुरुदेव से आज्ञा पाकर अपने को उनका कृपा-पात्र मानना । २. गुरुदेव की दृष्टि में रहना-परम सुख है। ३. आज्ञावहन में अपने को योग्य समझना । ४. आज्ञा-वहन करने से योग्यता की वृद्धि होती है । ५. 'गुरुदेव की दृष्टि में मैं योग्य हैं, तभी उन्होंने आज्ञा-प्रदान की है' यह समझना । ६. आज्ञा पाना परम सौभाग्य है । ७. गुरुदेव की आज्ञा भव-ताप से रक्षा करती है । ८. स्वच्छन्दता अति उष्ण ऋतु के समान है-सुखद नहीं । ९. संसार में स्वच्छन्दता व्याप्त है । १०. स्वच्छन्दता से सन्ताप ही उत्पन्न होता है। ११. संसार की स्वच्छन्दता से संरक्षण करने के लिये गुरुदेव की आज्ञा छत्र के समान है। आज्ञा प्राप्त किये बिना कुछ नहीं करें नापुच्छित्ताण कुव्वेज्जा, किंचि किच्चाण वा कया। गुरुणो णेव गूहेज्जा, संजया सुसमाहिया ॥५५॥ मुनि (गुरु से) पूछे बिना कुछ नहीं करें अथवा कुछ कर लिया हो तो गुरु से कुछ भी नहीं छिपावे । (जिससे मुनि) उत्तम समाधिवाले होते हैं ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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