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________________ ( २३२ ) क्षण का लाभ ले लेता है। वह जिन-स्वरूप और उनकी आज्ञा को जान लेता है। किन्तु विषयों का आकर्षण उनके प्रति श्रद्धान ही पैदा नहीं होने देता । भौतिक विज्ञान की भूल-भुलैया, यश का मोह, अपने को सत्य के पुरस्कर्ता मानने का गर्व आदि भी जिन-आज्ञा को भुला देते हैं। ४. जिन-आज्ञा के विस्मरण से कषायों को खुलकर खेलने का अवसर मिलता है। अतः भव और दुःख की वृद्धि होती है । ५. कभी-कभी नाचने-नचाने के लिये मद्यपान कर लिया या करवा दिया जाता है। जिससे नृत्य में सुख की अनुभूति हो, दुःख की नहीं। वैसे ही भव और दुःख में नचाने में मोह-मदिरा प्रधान रूप से कार्य करती है। जिन-आज्ञा का स्मरण करो सया आणं सरित्ताणं, तस्स वसे न होज्जए । चक्कवट्टीण आणं को, ण मण्णइ महीयले ॥३२॥ (इसलिये-) सदा (जिन-) आज्ञा का स्मरण करके, उस (कषाय) के वश में न होवे । क्योंकि चक्रवतियों की आज्ञा पृथ्वीतल पर कौन नहीं मानता है। (जिनेश्वरदेव भी धर्मचक्रवर्ती हैं)। टिप्पण-१. जिनेश्वरदेव विकारों-पापों में कभी भी धर्म नहीं बताते हैं। २. जिनेश्वरदेव स्वयं विकारों से मुक्त होते हैं । अतः वे विकार-सेवन की आज्ञा प्रदान नहीं कर सकते यह बात सदा स्मरण रखना चाहिये । ३ 'जिनदेव की आज्ञा क्या है'-इसका सदैव अन्वेषण करते रहना चाहिये । ४. जिन-आज्ञा का सदैव स्मरण करना-धर्मध्यान का एक भेद है। ५. जितनी देर जिन-आज्ञा का स्मरण किया जाता है, उतनी देर तक जिनदेव का भी स्मरण होता है। अतः मनःसुप्रणिधान बनता है । ६. जिन-आज्ञा का चिन्तन-स्मरण करने से चित्त में निर्मलता आती है। रुचि का परिष्कार होता है और आज्ञापालन में रस उत्पन्न होता है । ७. जिनआज्ञा की सतत स्मृति बनी रहने पर कषायों का जोर नहीं चलता है। उनके उदयनिरोध और विफलीकरण
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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